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अनेकान्त/54/3-4
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साक्ष्य से उन्हें 'कुल शब्द से सम्बोधित करना आवश्यक नहीं। छठा-शताब्दी ई.पू. के भारतीय गणतन्त्र बहुत पहले समाज के जन-जातीय स्तर से गुजर चुके थे। ये राज्य, गण और संघ थे, यद्यपि इनमें से कुछ का आधार राष्ट्र या जनजाति था; जैसा कि प्रत्येक राज्य-प्राचीन या आधुनिक का होता है।
डॉ. ए.एस. अल्तेकर का यह उद्धरण विशेषतः द्रष्टव्य है-यह स्वीकार्य है कि यौधेय, शाक्य, मालव तथा लिच्छवि गणराज्य आज के अर्थों में लोकतन्त्र नहीं थे। अधिकांश आधुनिक विकसित लोकतन्त्रों के समान सर्वोच्च एवं सार्वभौम शक्ति समस्त वयस्क नागरिकों की संस्था में निहित नहीं थी। फिर भी इन राज्यों को हम गणराज्य कह सकते हैं।...स्पार्टा ऐथेन्स, रोम, मध्य-युगीन वेनिस, संयुक्त नीदरलैण्ड और पोलैण्ड को 'गणराज्य' कहा जाता है; यद्यपि इनमें से किसी में पूर्ण लोकतन्त्र नहीं था। इस सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि तथा ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर निश्चय ही प्राचीन भारतीय गणराज्यों को उन्हीं अर्थों में गणराज्य कहा जा सकता है किजस अर्थ में यूनान तथा रोम के प्राचीन राज्यों को गणराज्य कहा जाता है। इन राज्यों में सार्वभौम सत्ता किसी एक व्यक्ति या अल्पसंख्यक वर्ग को न मिलकर बहुसंख्यक वर्ग को प्राप्त
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__ महाभारत में भी 'प्रत्येक घर में राजा' होने का वर्णन है। उपर्युक्त विद्वान के मतानुसार, "इस वर्णन में छोटे गणराज्यों की तथा उन क्षत्रिय कुलों की चर्चा है जिन्होंने उपनिवेश स्थापित करके राजपद प्राप्त किया था। संयुक्त राज्य अमरीका में मूल उपनिवेश स्थापकों को नवागन्तुकों की अपेक्षा कुछ विशेषाधि कार प्राप्त किए। ___ 'मलाबार गजटियर' के आधार पर श्री अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी ने 'नय्यरों के एक संघ' की ओर ध्यान आकर्षित किया है जिसमें 6000, प्रतिनिधि थे। वे केरल की संसद के समान थे। बौद्ध-साहित्य से ज्ञात होता है कि राजा बिम्बिसार श्रेणिक के अस्सी हजार गामिक (ग्रामिक) थे। इसी सादृश्य पर अनुमान किया जा सकता है कि 7707, राजा विभिन्न क्षेत्रों (या निर्वाचन-क्षेत्रों)