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________________ 14 अनेकान्त/54/3-4 वंसीजण्हुगसरिसी मेंढविसाणसरिसी य गोमुत्ती। अवलेहणीसमाणा माया वि चउव्विहा भणिदा॥3-72॥ __ अर्थात् मायाकषाय के चार प्रकार हैं- बाँस की जड़ के सदृश, मेढ़े की सींग के सदृश, गोमूत्र के सदृश तथा अवलेखनी के सदृश। 1. जैसे बाँस के जड़ की गाँठ नष्ट होकर तथा शीर्ण होकर भी सरल नहीं की जा सकती है, इसी प्रकार अति तीव्र वक्रभाव से परिणत माया परिणाम भी निरूपक्रम होता है। 2. इसी प्रकार मेढे की सींग के सदृश माया की दूसरी अवस्था है। जैसे अतिवलित वक्रतररूप से परिणत हुए भी मेढे के सींग को अग्नि के ताप आदि दूसरे उपायों द्वारा सरल करना शक्य है। 3. तीसरी मायाकषाय को गोमूत्र सदृश कहा है तथा चतुर्थ मायाकषाय को अवलेखनी (दातौन या जीभ के मल का शोधन करने वाली जीभी) लेना चाहिए। इसी प्रकार लोभकषाय को कृमिराग के सदृश अक्षमल के सदृश, पांशुलेप तथा हरिद्रावस्त्र के सदृश बतलाया है। जयधवला के ही अन्तिम 16वें भाग के पच्छिमखंध नामक अर्थाधिकार में कहा है कि जैसे बीज के अस्तित्व में जौ, तिल, मसूर आदि पृथिवी में निक्षिप्त कर अनेक कारणों के वश से अंकुरों को उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार संसार में शरीर को मूल कारण कर्म है, उस कर्म के क्षय को प्राप्त होने पर शरीरध रियों के भव बीज के नहीं रहने पर नवबीज की उत्पत्ति नहीं होती। इस प्रकार जयधवलाकार ने मूलग्रन्थगत विषय के अनुरूप सिद्धान्तों का ही व्याख्यान शैली में प्रयोग किया है अत: रूपक और दृष्टान्तों का कहीं-कहीं ग्रन्थ की विशालता को देखते हुए बहुत कम मात्रा में प्रस्तुत किया है। फिर भी, इन्हें जितने रूपों में प्रस्तुत किया वे अपने विषय को प्रस्तुत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं।
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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