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________________ अनेकान्त/54/3-4 1. नगराजिसदृश क्रोध-अर्थात् पर्वतशिला भेद सदृश क्रोध। इसे उदाहरण द्वारा समझाते हुए कहा है कि जैसे पर्वत शिलाभेद किसी भी दूसरे कारण से उत्पन्न होकर पुनः कभी भी दूसरे उपाय द्वारा सन्धान को प्राप्त नहीं होता, तदवस्थ ही बना रहता है। इसी प्रकार जो क्रोध परिणाम किसी भी जीव के किसी भी पुरुष विशेष में उत्पन्न होकर उस भव में उसी प्रकार बना रहता है, जन्मान्तर में भी उससे उत्पन्न हुआ संस्कार बना रहता है, यह उस प्रकार का तीव्रतर क्रोध परिणाम नगराजिसदृश कहा जाता है। 2. पृथिवीराजिसदृश क्रोध-जैसे ग्रीष्मकाल में पृथिवी का भेद हुआ अर्थात् पृथिवी के रस का क्षय होने से यह भेद रूप से परिणत हो गई। पुनः वर्षाकाल में जल के प्रवाह से वह दरार भरकर उसी समय संधान को प्राप्त हो गई। इसी प्रकार जो क्रोध परिणाम चिरकाल तक अवस्थित रहकर भी पुनः दूसरे कारण से तथा गुरु के उपदेश आदि से उपशमभाव को प्राप्त होता है वह उस प्रकार का तीव्र परिणाम भेद पृथिवीराजि सदृश जाना जाता है। 3. वालुकाीज सदृश क्रोध-इसे उदाहरण द्वारा समझाते हुए कहा है कि नदी के पुलिन आदि में वालुका राशि के मध्य पुरुष के प्रयोग से या अन्य किसी कारण से उत्पन्न हुई रेखा जैसे हवा के अभिघात आदि दूसरे कारण द्वारा शीघ्र ही पुनः समान हो जाती है अर्थात् मिट जाती है, उसी प्रकार क्रोध परिणाम भी मन्दरूप से उत्पन्न होकर गुरु के उपदेश रूपी पवन से प्रेरित होता हुआ अतिशीघ्र उपशम को प्राप्त हो जाता है। वह क्रोध वालुकाराजि के समान कहा जाता है। 4. उदकराजिसदृश क्रोध-इसी प्रकार उदकराजि के सदृश भी क्रोध जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इससे भी मन्दतर अनुभाग वाला और स्तोकतर काल तक रहने वाला वह जानना चाहिए। क्योंकि पानी के भीतर उत्पन्न हुई रेखा का बिना दूसरे उपाय के उसी समय ही विनाश देखा जाता इसी प्रकार मायाकषाय को भी सोदाहरण समझाते हुए कहा है कि
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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