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अनेकान्त/54/3-4
नमस्कार करता हूँ।
सप्तम वेदक नामक अर्थाधिकार (भाग 10 पृ. 2) में कर्मों की उदय और उदीरणा को समझाते हुए कहा है कि-"जिस प्रकार वनस्पति के फल परिपाक काल के द्वारा या उपाय द्वारा परिपाक को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार किये गये कर्म परिपाककाल के द्वारा या तप के द्वारा पचते हैं। __ जयधवलाकार ने व्यंजन नामक अनुयोग द्वार के अन्त में कहा है-जिस प्रकार विद्या की आराधना कष्टसाध्य होती है, उसी प्रकार लोभ का आलम्बनभूत भोगोपभोग कष्टसाध्य होने से प्रकृत में लोभ को कष्टसाध्य कहा गया है। इसी प्रकार लोभ जिह्वा के समान होने से जिह्वास्वरूप है, यहाँ असंतोषरूप साधर्म्य का आश्रयकर जिह्वा लोभ का पर्यायवाची बताया है।
सातवें भाग (पृ. 366) में जिनेन्द्रदेव को महोदधि की उपमा देते हुए कहा है कि-जैसे महोदधि के गर्भ से उत्तमोत्तम रत्न निकलते हैं. उसी प्रकार जो जिनेन्द्रदेव के वचनरूपी महोदधि से जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप तीन रन निकले हैं वे संसार के सभी निर्मल पदार्थों में सारभूत हैं अत: इन तीन रत्नों की सदा जय हो।
अणुभाग विहत्ती नामक पाँचवें भाग (पृ. 130) में शक्ति की अपेक्षा कर्मो के अनुभाग स्थान के चार विकल्प प्रस्तुत किये हैं-1. लता रूप 2. दारु रूप 3. अस्थि रूप 4. शैल रूप।
जयधवला भाग 12 के उपयोग नामक सप्तम अर्थाधिकार की गाथा 2-71 (पृष्ठ 152) में दृष्टान्तों द्वारा क्रोध कषाय को प्रतिपादित करते हुए कहा है
णग-पुढवि-वालुगोदयराईस सरिसो चउव्विहो कोहो। सेलघण-अट्ठि-दारुअ-लदासमाणो हवदि माणो॥2-71॥
अर्थात् क्रोध चार प्रकार का है-नगराजिसदृश, पृथिवीराजि सदृश, वालुकाराजि सदृश तथा उदकराजि सदृश।