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________________ अनेकान्त/54/3-4 ही पर्यायवाची है। गुण संकीर्तन आराध्य की भक्ति का एक माध्यम है और विशुद्ध भावना वाली भक्ति भवनाशिनी होती है। वादीभसिंह सूरि ने भक्ति को मुक्तिकन्या के पाणिग्रहण में शुल्क रूप कहा है। माताजी द्वारा विरचित स्तोत्रों का लौकिकफल शिवेतरक्षति एवं सद्य:परनिवृत्ति तथा आमुष्मिक फल परम्परा से निवृत्ति की प्राप्ति है। भारतीय साहित्य में स्तोत्रपरम्परा प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य में दृष्टिगत होती है। चतुर्विध वेद इसके निदर्शन हैं। वेद के अनेक सूक्तों की मन्त्रदृष्टा ऋषिकायें हैं किन्तु आगे स्तोत्रपरम्परा में नारियों के अवदान की इस परम्परा का ह्रास चिन्त्य है। पूज्य गणिनी आर्यिका ज्ञानमती ने संस्कृत में अनेक उच्चकोटि के स्तोत्रों की रचना करके संस्कृत स्तोत्र वाङ्मय में प्रथम स्थान बनाया है। इतने विपुल स्तोत्र साहित्य का निर्माण सम्पूर्ण संस्कृत वाङमय में किसी एक व्यक्ति द्वारा किया गया हो, ऐसा उल्लेख भी नहीं मिलता है। वर्ण्यविषय की दृष्टि से माताजी द्वारा रचित स्तोत्र बहुआयामी है। इसमें चौबीस तीर्थंकर, भगवान् बाहुबलि, गणधर, सिद्ध प्रभु, सिद्धक्षेत्र, त्रिलोकसम्बन्ध ो चैत्यालय, पंचमेरु, जम्बूद्वीप एवं वर्तमान काल के मुनिवरों की स्तुति के साथ षोडशकारणभावना, दशधर्म आदि का भी स्तवन किया गया है। मुनिवरों के पश्चात् प्रथम गणिनी आर्यिका ब्राह्मी माता की स्तुति लिखकर उन्होंने पूज्यताक्रम का शास्त्रानुमोदित परिपालन किया है। उनके द्वारा प्रणीत देव-शास्त्र-गुरु की ये स्तुतियाँ धार्मिक एवं साहित्यिक दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। एक लेख में माताजी द्वारा विरचित इन स्तोत्रों का वर्णन करना सर्वथा असंभव है। इन स्तोत्रों में कल्याणकल्पतरु नामक स्तोत्र का विश्व के स्तोत्रवाङ्मय मे सर्वातिशायी महत्त्व है। 212 पद्यात्मक इस स्तोत्र में 24 तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। छन्दःशास्त्र की दृष्टि से इस स्तोत्र का महनीय योगदान है। इसमें एक अक्षर वाले छन्द से लेकर 27 अक्षर वाले 143 प्रकार के छन्दों का तथा 30 अक्षर वाले एक अर्णोदण्डक का प्रयोग हुआ है। ऐसी स्थिति संस्कृत के स्तोत्र साहित्य में कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुई है। छन्दों के इस उपवन में माताजी ने अध्यात्म, दर्शन और इतिहास के पुष्पों को पुष्पित करके भारत की विद्वत्परम्परा में अगाध पैठ बनाई है। इस स्तोत्र में तीर्थंकरों की पंचकल्याणक तिथियाँ, माता-पिता एवं जन्मस्थान आदि के नाम, शरीर का वर्ण, अवगाहना
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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