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अनेकान्त/54/3-4
1. मौलिक संस्कृत साहित्य
साहित्य सृजन की भूमिका के रूप में लेखन क्षेत्र में प्रवेश करते हुए लेखिका ने क्षुल्लिका वीरमती की अवस्था में सर्वप्रथम जिन सहस्रनाम मन्त्र की रचना की। यद्यपि यह रचना प्रौढ़ नहीं है, तथापि साहित्यनिर्माण में हेतुभूत होने के कारण इसका अद्वितीय महत्त्व है। पूज्य माताजी द्वारा विरचित आराध ना नामक ग्रन्थ का प्रवृत्ति-निवृत्ति रूप शासन करने से तथा सूक्ष्मातीत तत्त्वों का शंसन करने से शास्त्रत्व सर्वथा सुसंगत है। संस्कृत के 444 श्लोकों मे विरचित इस शास्त्र में पूज्य माताजी ने मुनिधर्म का सरल एवं प्रसादगुण समन्वित शैली में विवेचन किया है। मूलाचार, भगवती आराधना, अनगार ध र्मामृत एवं रत्नकरण्डश्रावकाचार आदि पूर्वाचार्यो द्वारा प्रणीत ग्रन्थों के सार को आराधना में एकत्र प्रस्तुत करते हुए गागर में सागर भरने का कार्य किया गया है। आराधना का शाब्दिक अर्थ पूजा, उपासना या अर्चना है। निश्चय की अपेक्षा आराधना एक ही है, किन्तु व्यवहार की अपेक्षा से आराधना के चार भेद हैं-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप। 'आराधना' नामक इस शास्त्र में चतुर्विध आराधना का सांगोपांग वर्णन किया गया है। पूज्य माताजी ने महाव्रत एवं मूलगुण की अन्वर्थक संज्ञा की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है कि महाव्रत को इसलिए महाव्रत कहा गया है, क्योकि ये व्रत महापुरुषों द्वारा सेवित हैं। इसी प्रकार मूलगुण साधु की स्थिति में मूल या नींव के समान हैं तथा मोक्ष के मूल कारण हैं, अतएव मूलगुण कहलाते हैं। आराधना शास्त्र लेखिका के अपार वैदुष्य, मौलिक कर्तृत्व, विषयसंग्राहित्व, सरल प्रस्तुतीकरण और भाषा पर अप्रतिम अधिकार का सूचक है। कहीं भी व्याकरण या छन्दःशास्त्र की दृष्टि से स्खलन तथा सैद्धान्तिक प्रतिपादन में विरोध का अभाव इस शास्त्र की विशेषता है। यह ग्रन्थ साधुमात्र को तो पठनीय है ही, श्रावकों को भी इसका महत्त्व कम नहीं है। श्रमण आचारशास्त्र की परम्परा में आर्यिका द्वारा विरचित यह एकमात्र शास्त्र है, अत: इसका महत्त्व और भी विशिष्ट है।
गणिनी आर्यिका ज्ञानमती ने 40 के लगभग संस्कृत स्तोत्रों की रचना की है। स्तोत्र शब्द अदादिगण की उभयपदी स्तु धातु से ष्ट्रन् प्रत्यय का निष्पन्न रूप है, जिसका अर्थ गुणसंकीर्तन है। स्त्रीलिंग में प्रयुक्त स्तुति शब्द स्तोत्र का