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अनेकान्त/54/3-4
की बात है कि जैन धर्मसंघ के सभी सम्प्रदायों में साधुओं की भाँति साध्वियाँ भी साहित्य-प्रणयन के क्षेत्र में बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में गतिशील हुई हैं। समग्र जैन साहित्य के सिंहावलोकन से यह तथ्य स्पष्टतया उद्घाटित हो जाता है कि बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के पूर्व वीरशासन में ऐसा एक भी काल नहीं रहा है, जब किसी जैन साध्वी ने अपने तपोमय जीवन से समय निकालकर साधुओं के समान विशाल स्तर पर साहित्य-प्रणयन किया हो।
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में साहित्य-जगत् में एक ऐसी कारयित्री एव भावयित्री प्रतिभासम्पन्न साध्वी आर्यिका ज्ञानमती ने कदम रखा, जिसने संस्कृत एवं हिन्दी भाषाओं में विरचित अपनी शताधिक कृतियों से चिन्तनशील दार्शनिकों, सहृदय कवियों, सशक्त टीकाकारों, गुणज्ञ भावकों और साधक भक्तों को अतिशय प्रभावित किया है। यदि मैं अपनी समीक्षक दृष्टि में तनिक भक्ति का भी समावेश कर लूं तो मुझे एक शिलालेख में वादिराज सूरि के लिए प्रयुक्त निम्नलिखित उक्ति आर्यिका ज्ञानमती के लिए भी सर्वथा समीचीन प्रतीत होती है
‘सदसि यदकलङ्क कीर्तने धर्मकीर्तिः, वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः । इति समयगुरूणामे कतः संगताना,
प्रतिनिधिरिव देवो राजते वादिराजः ॥ भारतीय चिन्तन धारा मौलिक रूप से अध्यात्मवादी रही है। फलतः भारतीय मनीषा साहित्य का उद्देश्य प्रेय एवं लौकिक ही न मानकर श्रेय एवं आमुष्मिक भी स्वीकार करती है। पूज्य गणिनी आर्यिका ज्ञानमती द्वारा प्रणीत समग्र साहित्य धर्मनिष्ठ होने के कारण जहाँ एक ओर श्रेय का साधक है वहाँ दूसरी ओर काव्यसरणि का आश्रय लेने से प्रेय अर्थात् सद्यः आनन्दप्राप्ति का भी साधक है। आर्यिका ज्ञानमती ने अपनी साहित्यसाधना से संस्कृत साहित्य को चार रूपों में समृद्ध किया है - (1) मौलिक साहित्य का सृजन करके, (2) संस्कृत टीका का प्रणयन करके, (3) क्लिष्ट संस्कृत ग्रन्थों पर हिन्दी टीका लिखकर और (4) संस्कृत ग्रन्थों का हिन्दी पद्यानुवाद रचकर।