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अनेकान्त/54-2
ली। भरत ने, अपने पुरुषार्थ से अपने राज्य की सीमा का विस्तार इतना अधिक कर लिया कि एक दिन वे भरत चक्रवर्ती के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
लाखों जीवयोनियां हैं। पृथ्वी पर आहार, निद्रा, मैथुन और भयग्रस्त, मगर अमर होने की बीमारी सिर्फ आदमियों में ही पाई जाती है। यह कुछ सोचने जैसा है कि मनुष्य में ऐसा क्या है जो उसे तमाम समझदारी के बावजूद, यह धोखा बार-बार दिया जाता है कि 'अमर होना तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है।' राजनीतिक रूप से दूसरे शब्दों में सत्ताधारी होने के बाद, अथवा धार्मिक रूप से अर्थात् मठाधीश बनने के बाद यही नहीं, समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी कुछ = कुछ होने की, इतिहास में नाम दर्ज करवा पाने की, यह वासना की क्या अपने आप में आत्मवंचना नहीं है आदमी को क्यों यह नहीं लगता कि उसके होने न होने से उसके अस्तित्व पर कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है। भरत चक्रवर्ती थे तो ज्ञानी, मगर एकाएक उनके मन में इन्द्रलोक में अधिष्ठित विशाल फलक पर स्वर्णाक्षरों में अपना नाम लिखवाने की इच्छा जागी तभी देवर्षि यानी ब्रह्मा के मानसपुत्र वहां आ गए। भरत चक्रवर्ती ने कहा कि, क्योंकि मैं चक्रवर्ती सम्राट् हूं और संभवत: पहला चक्रवर्ती सम्राट् इसलिए मैं इन्द्रलोक चलना चाहता हूं आपके साथ। देवर्षि ने जब पूछा तो भरत चक्रवर्ती ने उन्हें गर्व से अपनी इच्छा के विषय में भी बता दिया। देवर्षि ने उन्हें बहुतेरा समझाया कि इतना अपार है यह दिक्क्षेत्र जिसमें लाखों आकाश गंगाएं तितली की तरह फड़फड़ा रही हैं इन लाखों आकाश गंगाओं के अपने अपने करोड़ों सौर मंडल हैं अपना भी उन्हीं में से एक अदना सा सूर्य है दूसरे दर्जे का तारा। ऊपर कहीं गोलोक, धुलोकादि हैं तब उन सबके नीचे इन्द्रलोक है। पृथ्वी भी ज्यादा से ज्यादा एक मटर के दाने की तरह अपनी ही कक्षा में घूमने के लिए अभिशप्त है। उस पृथ्वी के भी एक छोटे से टुकड़े पर आपका शासन है। तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल और पाताल में से सिर्फ एक ही तल को एक खंड पर। चक्रवर्ती की उपाधि आपको देने कोई नहीं आया यह तो ऐसा ही है कि कोई सत्ताधीश या धनपुश जबरन अपने को विद्यावारिधि कहने लगे। तो राजन्! क्यों इस आत्मवंचना में पड़ते हैं। छोड़िए इस मिथ्याभिमान को। देवर्षि का इतना लंबा व्याख्यान सुनकर भरत चक्रवर्ती और अधिक अडिग स्वर में इंद्रलोक