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________________ अनेकान्त/54-2 भारतवर्ष और भरत __- कैलाश वाजपेयी सत्य को छोड़कर यहां ऐसा कुछ भी तो नहीं जिसे पाने के लिए बेचैन हुआ जाए। उसे पाने उसे आत्मसात् करने के लिए, यह बिल्कुल आवश्यक नहीं कि कोई तीर्थ यात्रा की जाए या किसी मठाधीश के पास जाया जाए। क्योंकि वहां जो हो रहा है वह एक जड़, नियमबद्ध ड्रिल है और वहां जो महंत बैठा है वह निहायत फूहड़ तरह से गिनती के कुछ रटे हुए श्लोक दोहराकर आपको धमका रहा है इसका दान दो, एक भंडारा करो आदि-आदि। निस्संदेह यह मात्र दोहराना है और जिसे हम दोहराए चले जाते हैं वह सत्य नहीं होता उससे कोई सुवास नहीं उठती। सब महंत यही कर रहे हैं स्वयं तों स्वर्ग में पहंचे ही हुए हैं और चेलों को भी आश्वासन दे रहे हैं कि एक मठ और बनवा दोगे तो मोक्ष का मार्ग और भी सुगम हो जाएगा। यह जो स्वर्ग पहुंचने की, अमर होने की अकुलाहट है। इस संदर्भ में एक बड़ी रोचक कहानी याद आ रही है। अपने यहां चार महत्वपूर्ण पुरुप हुए हैं जिनका नाम भरत था। पहले भरत, ऋषभदेव के पुत्र थे। ऋषभ का नाम वैदिक और श्रमण दोनों परम्पराओं में आद्यंत मिलता है। दूसरे भरत थे श्रीराम के छोटे भाई। इन भरत जैसा आदर्श भाई दुनिया के इतिहास में दूसरा नहीं मिलता तीसरे भरत हुए दौष्यंति भरत जिनकी चर्चा महाकवि कालिदास के 'अभिज्ञान शाकुंतल' में है और चौथे भरत हैं भरतमुनि, नाट्यशास्त्र के रचयिता। इनमें से किसी भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा, यह अनुसंधान का विषय है। जो कहानी हम कहने जा रहे हैं वह ऋषभ अर्थात् आदिनाथ के जीवन से संबद्ध है। वर्षों शासन कर चुकने के बाद ऋषभदेव के मन में वैराग्य उदित हुआ। उन्होंने वन गमन का मन बनाया और अपना राजसिंहासन अपने बड़े बेटे भरत को सौंपकर जंगल की राह SSCCccccccccer
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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