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________________ अनेकान्त/54-2 कूरे तिया के अशुचि तन में काम रोगी रति करें बहु मृतक सड़हिं मसान माहीं, काग ज्यों चोंचें भरें। संसार में विष वेलनारी तजि गए जोगीश्वरा। अष्ट द्रव्य पूजा के दीवाने जब यह गाते हैं तो क्या वे जानते हैं कि वे तीन ज्ञान के धारी तीर्थकरों को जन्म देने वाली माताओं का और ऋषभ देव का जिनने एकाधिक पत्नियों से दो पुत्रियां व एक शत पुत्र पैदा किए, किस भाषा में कितना अपमान कर रहे हैं। सामान्य स्त्रियों में अपनी "माता बहन सुता पहचानों" की और उनके अपमान की बातें तो अलग रहीं। इन जैसे इक तरफा विचारों से अपनी असहमति दिखाते हुए शिवार्य ने तो भगवती आराधना में लिखने का साहस किया भी कि - जहसील रक्खयाणं पुरिसाणं णिदिदाओ महिलाओं तहसील रक्खयाणं महिलाणं णिदिदा पुरिसा। 988 जैसे अपने शील की रक्षा करने वाले पुरुषों के लिए स्त्रियां निंदनीय हैं वैसे ही अपने शील की रक्षा करने वाली स्त्रियों के लिए पुरुष निंदनीय है। यदि अपनी कमजोरी पर काबू पाने के लिए दूसरे की निंदा से ही व्रत रक्षण होता है तो क्या इसके लिए अपनी आत्मा के परिणामों में घोर घृणा व कषाय पैदा करना किसी तरह उचित है? क्या अच्छा नहीं कि दोनों ही निर्विकार रहें। इसके अलावा सामान्य पूजा विधि में आह्वान, स्थापना, सन्निहिति व विसर्जन होते हैं। जब मुनि (या साध्वी) सामने उच्चासन पर विराजमान हैं तो फिर कैसा अवतर, अवतर! कैसा ठः ठः! कैसा सन्निहितो भव और आहार ग्रहण के पहले कैसा विसर्जन! जिन साधुओं को आहार करना पड़ता है, उनको "क्षुधारोगविनाशाय नैवेद्यं'' अर्पित करना, जिनके आठों ही कर्मो का बंधन बना हुआ है 'उनको अष्ट कर्म दहनाय' धूप चढ़ाना/जलाना और जिनने स्वयं अनर्घ पद प्राप्ति के लिए साधु वेष धारण किया है उनको अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ का निर्वापन करना कैसे सही ठहरता है? अत: पूजा की मुख्य विधि, आहार के लिए निमंत्रित अतिथि के मामले में चाहे वह साधु पुरुष हो या महिला संभव नहीं है। अत: नर साधु या नारी साध्वी दोनों ही प्रचलित (अष्ट द्रव्य) पूजा के अधिकारी नहीं है। AKADC22८८CCCCC
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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