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अनेकान्त/54-2 comssssssssccccccccee
इसके बावजूद मेरा निवेदन यह है कि - (1) यदि कोई आहार देने वाला किसी साध्वी या साधु का सम्मान अष्ट
द्रव्य पूजा से नहीं करता, तो अतिथि साधु/साध्वी आहार ग्रहण न करे और अंतराय का तीव्रोदय समझ कर वापस हो जाए। आखिर
यतिवर वृषभ देव ने भी तो यही किया था। (2) यदि कोई सद्गृहस्थ आर्यिकाओं का भी साधुओं की तरह अष्ट द्रव्य
पूजा से सम्मान करना चाहता है और अतिथि आर्यिका उसे स्वीकार करती है तो भला इसमें कोई क्यों एतराज कर सकता है और इसमें शास्त्र विरोधी क्या बात है! अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि कुछ ज्यादह ही सम्मान दे दिया। शास्त्र में कोई मनाही भी तो नहीं हैं। नारियों के लिए अपवाद करना होता तो कोई लिखता। आर्यिका का नग्न मुनि के समान आहार सत्कार करने में न तो तत्वार्थ श्रद्धान में हानि होती है, और न ही यह ऐसा कार्य है जिससे अशुभ कर्म का बंध हो। आखिर आहार देने या न देने, सम्मान कितना देने या न देने में किसी को, मजबूर तो नहीं किया जा
सकता। (3) अतः दाता को अच्छी लगने वाली प्रचलित परिपाटी में दोष
निकालकर गृहस्थों को उसमें परिवर्तन के हित प्रेरित करने के लिए शास्त्र विरोध का डर दिखाना कोई समझदारी नहीं है, खासकर नर
नारी समानता के इस युग में। (4) आचार संहिताओं के नियम तो समयानुकूल, देशानुकुल बदले जा
सकते हैं यदि वे मूल सिद्धान्त अहिंसा, संयम तथा सम्यक्त्व के प्रतिकूल न हो। आखिर अष्ट द्रव्य पूजा में किया ही क्या जाता है; जरा विचार तो कीजिए; उदाहरण के लिए, देखिए 'अरिहंत श्रुत
सिद्धान्त गुरु निरग्रंथ' पूजा में - 'वर नीर क्षीर समुद्र घट भरि' पूजा रचूंऔर चढ़ाते क्या हैं, कुओं का पानी; 'भ्रमर लोभित चन्दन घिसि' पूजा रचूं। हमने तो मंदिरों में भ्रमर नहीं देखे, 'लहि कुंद कमलादिक पहुप' पूजा रचूं और हम चढ़ाते हैं पीले चावल;