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________________ अनेकान्त/५ ह। जिन-आगमों को तीर्थकर देशना कहा जाता है और जो देशना सर्वभापागर्भित अर्धमागधी होती है उस देशना का शौरसेनी मात्र में ही प्रसिद्ध किया जा रहा है। आगमों में उल्लेख है कि जिन भगवान की वाणी (जिनवाणी) को पूर्णश्रुत ज्ञानी गणधर ग्रथित करते हैं और अंग और पूर्वो में विभक्त वे अर्धमागधी में ही हात हैं। फलतः वे जिनवाणी संज्ञा को पाते हैं। केवल शौरसेनी मात्र में ही रचे हा तो जिनवाणी नहीं हो सकते। विचार करें कि क्या किसी एक भाषा मात्र में रचित ग्रन्थों को ही जिन की वाणी कहा जाना युक्ति संगत है? जबकि परम्परित पूर्वाचार्यों का स्पष्ट कथन है कि जिनवाणी सर्वभाषा गर्भित होती है। तथाहि1. 'अर्ध च भगवद् भाषाया मगधदेशभाषात्मकं अर्ध च सर्वभाषात्मकं' - दर्शन पाहड़ टीका ।। 35 1 38 | 13 ।। 2. 'अट्ठारस महाभासा खुल्लयभासा वि सत्तसयसंखा।' ___-तिलोयपण्णत्ति ।। 584। 90 ।। 3. 'योजनान्तरदूर समीपाष्टादश भाषा सप्ताहतशतभाषायुतः' -धवला ।। 1। 1। 6। 4. 'ण च दिवझुणी अक्खप्पिया चेव अट्ठारस सत्तसयभासकुभासप्पिय।' - धवला 9। 41 44 पृ. 136 5. 'तव वागमृतश्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम्। प्रणीत्यमृतं यद्वत् प्राणिनो व्यापि संसदि।।' -वृहत्स्वयम्भू स्तोत्र ।। 97 ।। अरहस्तुति : परम्परित पूर्वाचार्यों के उक्त कथनों के आधार पर स्पष्ट रूप से सिद्ध होता है कि जिन-वाणी की मूल-भापा सर्वभापागर्भित अर्धमागधी ही है। तिलोयपण्णत्ति में अर्धमागधी भापा को केवलज्ञान के अतिशयों में गिनाया है 'अट्ठारस महाभाषा खुल्लयभासा सयाइसत्त तहा। अक्खर अणक्खरप्पय सण्णी जीवाण सयल भासाओ।।' -तिलोयपण्णत्ति -4/907 अट्ठारह महाभापा, सात सौ क्षुद्रभापा तथा और भी संज्ञी जीवों की समस्त अक्षर-अनक्षगत्मक भाषाएं हैं। उपर्युक्त उद्धरण कंवली के कंवलज्ञान सम्बन्धी ग्यारह अतिशयों में है और कंवली में नियम में होते हैं। फलत. सर्वभाषागर्भित वाणी को ही 'आगम' अथवा 'जिनवाणी' संज्ञा सं अभिहित किया जा सकता हैं यह भी
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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