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________________ अनेकान्त / ६ ध्यान देने की बात है कि अतिशयों में बदलाव नहीं होता और न ही उनमें न्यूनाधिकता ही होती है। यदि ऐसा न मान कर जिनवाणी को मात्र शौरसेनी रूप में माना जायेगा तो एक ओर जहां दिगम्बर- आगमों के कथन मिथ्या ठहरेंगे, तो दूसरी ओर इस सम्भावना को बल मिलेगा कि जब हमारे आगम शौरसेनी में है तो फिर संस्कृत, मराठी, राजस्थानी, गुजराती, तमिल, कन्नड़ आदि भाषाओं में निबद्ध जैन आगमों को क्यों जिनवाणी के रूप में प्रतिष्ठा दी जाय ? एकभाषा वह भी शौरसेनी को ही यदि जिनवाणी माना जाये तो विभिन्न जातीय भाषाओं को जानने वाले जिनवाणी को हृदयंगम कैसे करेंगे? उन विभिन्न भाषाओं के आगमों को मंदिरों में श्रद्धा और प्रतिष्ठा कैसे सम्भव होगी ? यदि परम्परित आचार्यो का मात्र शौरसेनी ही इष्ट होती तां निश्चित ही आ. कुन्दकुन्द को यह न कहना पड़ता 'जह ण वि सक्कमणज्जो अणज्जभासा विणा उ गाहेउ' जैसे अनार्य ( पुरुष ) अनार्यभाषा के बिना ( अर्थ को ) नहीं समझ सकता अर्थात् वह अपनी भाषा में ही समझ सकता है। अतः शौरसेनी के ब्याज से अपनी पद-प्रतिष्ठा को चमकाने में प्रवृत्त आधुनिक विद्वानों को भी शौरसेनीकरण की प्रवृत्ति से विराम लेना चाहिए । शौरसेनी की बलात् स्थापना किये जाने के पीछे कहीं ऐसा तो नहीं कि भावी किसी तीर्थकर की दिव्य-देशना शौरसेनी में होने की सम्भावना बन गई हो, जिसकी पूर्वपीठिका में ऐसा प्रचार बनाया जा रहा हो ? यतः कलिकाल में ऐसा मार्ग 25वें तीर्थकर बनाने की मुहिम के तौर पर खुल ही चुका है। सम्भव है कि निकट भविष्य में शौरसेनी में दिव्य-देशना करने वाले 26वें तीर्थकर का भी प्रादुर्भाव हो जाये । हमें तो खेद तब होता है जब वर्तमान में मान्य उपलब्ध जिन-आगमों का प्रचार करने का बिगुल बजाने वाले स्वयं ही परम्परित पूर्वाचार्यो के कथनों को झुलाकर अनेकों विद्वानों की ढेरों सम्मतियां एकत्र कर उन्हें शौरसेनी के पोपण में प्रकाशित कराते हैं। ऐसे में हमें निम्नलिखित गाथाओं का स्मरण हो आता हैसम्माइट्ठी जीवो उवइट्ठ पबयणं तु सद्दहदि । सहदि सब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा । । सुत्तादो तं सम्मं दरिसज्जतं जदा ण सद्दहदि । सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी । । - जीवकाण्ड - 27 – 28 सम्यग्दृष्टि जीव आचार्यो के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान करता है, किन्तु अज्ञानतावश गुरु के उपदेश से विपरीत अर्थ का श्रद्धान कर लेता है ।
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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