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________________ हे जिनवाणी भारती........... पदमचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली सम्यग्दर्शन, आत्मदर्शन और आत्मानुभव की चर्चा मात्र में जैसा सुख है और कहां? इस चर्चा में बोलने या सुनने के सिवाय अन्य कुछ करना-धरना नहीं होता। बोलने वाला बोलता है और सुनने वाला सुनता है-लेना-देना कुछ नहीं। भला, भव्य होने का इससे सरल और सबल उपाय क्या हो सकता है? जहां आत्मा दिख जाय और जिसमें परिग्रह संचय तो हो किन्तु तप-त्याग तथा चारित्र धारण करने जैसा अन्य कोई व्यायाम न करना पड़े और स्व-समय मे आने के लिए कुन्द-कुन्द विहित मार्ग- “चरित्तदंसणणाणहिउ तं हि ससमयं जाण।" से भी छुटकारा मिला रहे अर्थात् मात्र चर्चा में ही 'स्व-समय' सिमिट वैठे। ठीक ही है "तत्प्रतिप्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता निश्चितं सहि भवेद् भव्यः भानिविर्वाणभाजनम्" का इससे सरल और सीधा क्या उपयोग होगा? कभी हमने स्व-समय और पर-समय के अंतर्गत आचार्य कुन्द-कुन्द के 'पुग्गलकम्मपदेसट्टियं च जाण पर-समयं' इस मूल को उद्धृत करते हुए लिखा था कि जब तक जीव आत्मगुणघातक (घातिया) पौद्गलिक द्रव्यकर्म प्रदेशों में स्थित है-उनसे बंधा है और उनके प्रभाव में है तब तक वह जीव पूर्णकाल पर-समय रूप है-पर-समय प्रवृत्त है। मोह क्षय के बाद ही स्व-समय जैसा व्यपदेश किया जा सकता है और यही कार्यकारी है। जबकि आज मोह-माया में लिप्त होते हुए भी स्व-समय में आने के प्रयत्न हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह अन्यधर्मी विचारधारा का प्रभाव है जो पर्याप्तकाल से दिगम्बर पंथियों में प्रवेश पा गया और घर में ही मुक्तिमार्ग खुल गया। वहां अनेकों को घर में ही केवलज्ञान होने की बात है और इसी की आड़ में इस पंचम काल में 25वें तीर्थकर की कल्पना बनी। पर, समाज के सौभाग्य से वह चल न सकी। आज हर क्षेत्र में जैसा चल रहा है वह केवल बातों मात्र का जमा-खर्च है, तथा उपलब्धि की आशा नहीं। उदाहरण के लिए यह कहना ही पर्याप्त है कि जिस जिन-धर्म के मूल में अपरिग्रह बैठा हो-जो वीतरागता में प्राप्त होता है उसे आज परिग्रह और राग कं वल पर प्राप्त किया जाने का उपक्रम किया जाय या उसकी प्रभावना की जा सकं? ऐसा करने से तो वह प्राणी 'स्व' से आर दूर चला जाएगा। ऐसा ही एक विवाट 'जिनवाणी' क भापा स्वरूप को लेकर उठ खड़ा हुआ
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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