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________________ अनेकान्त/५५ नय कह सकते हैं। अशुद्ध द्रव्य जिसका प्रयोजन है. वह अशुद्ध निश्चयनय कहलाता है। आगम भाषा में उसे कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय कह सकते हैं। बृहद् द्रव्यसंग्रह मे उपरोक्त दो नयों का प्रयोग देखिये . पुग्गल कम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो। चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्ध भावाणं ।।८।। यहाँ अशुद्ध निश्चयनय से आत्मा को चेतन परिणाम (भावकर्म रागद्वेषादि) का कर्ता बताया है तथा शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध भावों का कर्ता बताया है। यद्यपि यहाँ स्पष्ट रूप से अशुद्ध निश्चयनय का उल्लेख नहीं किया गया है, तथापि शुद्धनय से अन्य निश्चयनय निरूपित किया गया है, वह शुद्ध निश्चयनय ही है। समयसार कलश में शुद्ध नय का लक्षण देखिये आत्मस्वभावं परभावभिन्नं आपूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम् । विलीनसंकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति । ।१०।। आत्म-स्वभाव को परभावों से भिन्न, आपूर्ण, आदि-अन्त रहित, एकरूप तथा संकल्प-विकल्प जाल से रहित प्रकाशित करता हुआ शुद्धनय (शुद्ध निश्चय) उदय को प्राप्त होता है। __ आचार्य अमृतचन्द्र जी ने निश्चय नय से अपने भावरूप परिणमन करने वाले को कर्ता कहा है - य: परिणमति स कर्ता य: परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । या परिणति: क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ।। जीव रागद्वेष भाव का भी कर्ता है तथा शुद्धभाव (वीतराग भाव) का भी। दोनों प्रकार के भावों का कर्ता एक नय से नहीं हो सकता।
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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