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________________ अनेकान्त/५४ करने का नाम व्यवहार है। यह इस निरुक्ति द्वारा किया गया शब्दार्थ है, परमार्थ नहीं। जैसा कि यहाँ पर गुण और गुणी मे सत् रूप से अभेद होने पर भी जो भेद करता है, वह व्यवहार नय है। (पंचाध्यायी/पू०/५२२) (७) "व्यवहारनयो भिन्नकर्तृकर्मादिगोचरः”। व्यवहार नय भिन्न कर्ता-कर्मादि विषयक है। (८) “जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो व्यवहारो''। (छहढाला) उपरोक्त परिभाषाये निश्चय और व्यवहार के स्वरूप को समझने में उपयोगी हैं। इन नयों की परिभाषायें अध्यात्म में बहुत मिलती है। सब सापेक्ष हैं। यहाँ दोनों नयों का पृथक्-पृथक् एव समन्वित वर्णन किया जाता है। निश्चयनय - जिससे मूल पदार्थ का निश्चय किया जाता है, वह निश्चयनय है। यह नय वस्तु के मूल तत्त्व को देखता है। यद्यपि पर पदार्थो की संगति भी वास्तविक है तथापि यह उसको दृष्टिगत नहीं करता है। जैसे आत्मा और पुद्गल संसार में मिले हुए द्रव्य है। ऐसी स्थिति मे भी शरीरादि पर-द्रव्यों को पृथक् ही मानते हुए केवल आत्म-द्रव्य को ही ग्रहण करता है। पर्यायों पर भी दृष्टि नही डालता है। आगम भाषा का द्रव्यार्थिक नय अपेक्षा दृष्टि से निश्चय नय माना जा सकता है, किन्तु पूर्णतया दोनों का स्वरूप एक नहीं है क्योंकि वहाँ व्यवहार को भी द्रव्यार्थिक माना गया है। ___“स्वाश्रितो निश्चय" - इस लक्षण के अनुसार इस नय का प्रयोजन स्वद्रव्य है। निश्चयनय दो प्रकार का है। १ शुद्ध निश्चयनय, २ अशुद्ध निश्चयनय। शुद्ध द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है, वह शुद्ध निश्चयनय है। इसे आगम भाषा में वर्णित परमभावग्राही शुद्ध द्रव्यार्थिक
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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