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________________ अनेकान्त/५३ (६) "आत्माश्रितो निश्चयोनयः'। आत्मा ही जिसका आश्रय है, वह निश्चयनय है। (समयसार, आत्माख्याति-२७२) (७) “अभिन्नकर्तृ-कर्मादिविषयो निश्चयो नयः" । कर्ता, कर्म आदि को अभिन्न विषय करने वाला निश्चयनय है। (तत्त्वानुशासन/५९, अनगार धर्मामृत/१/१०२) व्यवहारनय (१) “पडिस्वं पुण वयणत्थणिच्छयो तस्स ववहारों"। वस्तु के प्रत्येक भेद के प्रति शब्द का निश्चय करना व्यवहारनय है। (धवला १/१) (२) "संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः" । सग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थो का विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहार है। (सर्वार्थसिद्धि १/३३) (३) “भेदोपचाराभ्यां व्यवहरतीति व्यवहारः” । जो भेद और उपचार से व्यवहार करता है, वह व्यवहार है। (४) “जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स । सो ववहारो भणियो..'। एक अभेद वस्तु मे जो धर्मो का अर्थात् गुण पर्यायों का भेद रूप उपचार करता है वह व्यवहार नय कहा जाता है। (५) “पराश्रितो व्यवहार:"। पर पदार्थ के आश्रित कथन करना व्यवहार है। (समयप्राभृत आत्मख्याति-२७२) (६) "व्यवहरणं व्यवहार: स्यादिति शब्दार्थो न परमार्थ:'। स यथा गुणगुणिनो सद्भेदे भेदकरणं स्यात्'। विधिपूर्वक भेद
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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