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________________ अनेकान्त/५६ दो नय चाहिए। वे दोनों ही निश्चयनय हैं। दोनों के विषय विरुद्ध हैं। अत वे शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय ही हो सकते हैं। ___ चूँकि जीव का परिणमन शुद्ध रूप से एवं अशुद्ध रूप से, दोनों से होता है, अत. आचार्य श्री की दृष्टि मे दोनों को निश्चय रूप से मान्यता प्राप्त है। परमार्थ की दृष्टि से अशुद्ध निश्चय भी व्यवहार ही है। व्यवहारनय - ऊपर कह आये हैं कि जो भेद और उपचार से व्यवहार करता है, वह व्यवहारनय है। इसका विषय अनुपचार भी है, जैसा कि इसके भेद-प्रभेदो से प्रकट है। गुण और गुणी में भेद करना इसका कार्य है तथा भेद मे भी अभेद की सिद्धि करना भी (उपचार) इसका कार्य है। जैसे जीव और पुद्गल में भेद है किन्तु यह उनको एक कहता है, जैसे “ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को । (समयसार-२७) व्यवहार नय देह और जीव को एक कहता है। 'पराश्रितो व्यवहारः' - इस वचन के अनुसार यह नय पर के आश्रय से प्रवृत्ति करता है। परद्रव्यो द्रव्यकर्म, शरीर-परिग्रहादि नोकर्म को तथा उनके सम्बन्ध से होने वाले कार्यो को जीव का मानता है। जीव कर्म करता है, जन्म मरण करता है, संसारी है, पौद्गलिक कर्मो का भोक्ता है, बद्ध और स्पृष्ट है, आदि का वर्णन करता है। इस नय को आगम भाषापेक्षया पर्यायार्थिक नय कहते हैं। यह द्रव्य को नहीं देखता, पर्याय को ही विषय करता है। इस नय को भी दो भेदों मे विभक्त किया जा सकता है। १ स्वभाव व्यंजन पर्यायार्थिक नय २ विभाव व्यजन पर्यायार्थिक नय।
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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