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________________ अनेकान्त / ५० कहा जाता है, उस सयोग केवली अरिहन्त को तेरहवें गुणस्थानवर्ती परमात्मा कहते I अयोगकेवली - चौदहवीं सीढ़ी मजिल को छुई हुई है, यात्री की यात्रा पूरी हो जाती है, उसे गंतव्य मिल जाता है, उसका व्यक्तित्व सिद्ध बन जाता है। विश्व उसकी चरण-धूलि को पाकर स्वयं को कृतार्थ समझता है । समर्पित हो जाते है, उनके चरणो पर अनगिनत श्रद्धा - पुरुष । आत्म तत्त्व पुरुष के शरीर को भी केचुली की तरह छोड़ देना उसकी अयोग केवली अवस्था है। जैन लोग जिसे 'णमो सिद्धाणं' कहते है. इसी समय साकार होती है, वह वन्दनीय सिद्धावस्था । जिसमे योग विद्यमान नही है, उसे अयोग कहते है जिसने केवलज्ञान पाया है, उसे केवली कहते हैं जो योग रहित होते हुए केवली होता है उसे अयोग केवली कहते है । जिस योगी के कर्मो के आने के द्वार रूप आस्रव सर्वथा अवरुद्ध हो गये है तथा जो सत्त्व और उदय रूप अवस्था को प्राप्त कर्मरूपी रज के सर्वथा निर्जरा हो जाने से कर्मो से सर्वथा मुक्त होने के सन्मुख आ गया है, उस योगरहित केवली को चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोग केवली कहते हैं, उस गुणस्थान मे काय और वाक् व्यापार निरुद्ध होने की साथ ही साथ मनोयोग भी पूरी तरह नष्ट हो जाता है । आत्मा अपने मूल शुद्ध स्वरूप मे स्थिर हो जाता है । संसार दशा का अंत हो जाता है. शेष चारो अघातिया कर्म ८५ प्रकृतियों की सत्त्व व्युच्छित्ति भी इस गुणस्थान के अतिम क्षणो मे हो जाती है और सिद्धावस्था प्राप्त हो जाती है । इस तरह जो व्यक्ति जन्म-जन्म से विषपायी होता है, वही अमृतपायी बन जाता है, ऐसे व्यक्तित्व ही बनते है - तीर्थकर, बुद्ध अवतार, ईश्वर 1 काश' हमारा व्यक्तित्व भी ज्योतिर्मान होकर इतना योग्य बन जाये । इत्यलम् द्वारा-पं. कमलकुमार जैन दिगम्बर जैन विद्यालय कॉटन स्ट्रीट, कलकत्ता-७
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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