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निश्चय-व्यवहार
- शिवचरनलाल जैन
आत्म स्वरूप को सुखमय बनाने के लिए उसके परिज्ञान की महती आवश्यकता है। ज्ञान प्रमाण और नयों से होता है। ज्ञान की समीचीनता का नाम ही प्रमाण है। कहा भी है 'सम्यग्ज्ञान प्रमाणं' । प्रमाण के अंशो को नय कहते हैं। ('प्रमाणांशा नया उक्ता ')। सारांश में कह सकते हैं कि ज्ञान की समीचीनता, चाहे वह समग्र रूप में हो अथवा आंशिक रूप मे, आत्मस्वरूप को समझने का उपाय है। “नयतीति नय.'' अर्थात् जो किसी एक लक्ष्य पर पहुँचता है, ले जाता है, वह नय है। यदि लक्ष्य की ओर अग्रसर होना है तो नयों की आवश्यकता है। नयो के दो काम इस प्रकार ज्ञात होते हैं-एक तो ज्ञान मे सहायक होना, दूसरा अग्रसर कराना। अन्य शब्दो में क्रिया या गतिशीलता के सम्मुख ज्ञान के साधनों को नय कहा जा सकता है।
अनेकान्त जैन-दर्शन का प्राण है। वस्तु अनन्त धर्म वाली है। उन धर्मो को विभिन्न दृष्टियों से ही जाना जा सकता है, इन्हीं दृष्टियो को नय कहते है। पदार्थ की ययात्मकता के सफल अववोधक होने से सभी नय सार्थक हैं। आगम और अध्यात्म इन दो रूपो में श्रुतज्ञान को विभक्त किया जाता है, अलग-अलग दो श्रुतज्ञान निरपेक्ष नही हैं। दोनो का हर काल में सहयोगी निरूपण है। इसीलिए आगमिक नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक तथा आध्यात्मिक नय निश्चय और व्यवहार ३६ में अंक ३ और ६ के समान विपरीत दिशोन्मुख न होकर ६३ में परस्पर सहयोगाकांक्षी के रूप में अवस्थित है। किसी अपेक्षा से आगम