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________________ अनेकान्त/४५ सहित नहीं होता है, उन्हें अप्रमत्त संयत कहते है। जब सज्ज्वलन और नो-कषाय का मद उदय होता है, तब सकल सयम से युक्त मुनि के प्रमाद का अभाव हो जाता है। अत. इस गुणस्थान को अप्रमत्तसंयत कहते हैं। आत्मार्थी-साधक की पवित्र भावना के बल पर कभी-कभी ऐसी अवस्था प्राप्त होती है कि अंत:करण मे उठने वाले विचार नितान्त शुद्ध और उज्ज्वल हो जाते हैं और प्रमाद नष्ट हो जाता है। वह आत्मचिन्तन में सावधान रहता है। इस स्थिति को अप्रमत्त गुणस्थान कहा जाता है। अपूर्वकरण-अब तक हमने सात सोपानो के संगमरी सौन्दर्य का रसास्वादन किया। अब हम चढेंगे स्वर्णिम हिमाच्छादित बुद्धत्व की ओर । व्यक्तित्व के चरम लक्ष्य की ओर। अब तक की यात्रा से व्यक्तित्व की आभा आठवें दर्जे से गुजरने से ही मुखरित होती है। व्यक्ति को यहा आतरिक शक्ति का पता लगने लगता है। उसका चेहरा मुरझाया हुआ नहीं रहता, उसके चेहरे पर हमेशा राम सी मुस्कान रहती है कोई उन्हें तकलीफ भी दे दे, पेड पर औंधे मुंह भी लटका दे, तो भी उन पर असर नहीं होता। उनका व्यक्तित्व आत्मदर्शी बन जाता है। ___अपूर्वकरण-प्रविष्ट सयतो मे सामान्य से उपशमक और क्षपक ये दो प्रकार के जीव है। 'करण' शब्द का अर्थ परिणाम है और जो पूर्व अर्थात् पहले कभी भी प्राप्त नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते है। अध प्रवृत्तकरण के अतमुहर्त्तकाल को व्यतीत करके सातिशय अप्रमत्त साधक जब प्रतिसमय विशुद्ध होता हुआ, अपूर्व परिणामों को प्राप्त करता है, तब वह अपूर्वकरण गुणस्थान वाला कहलाता है। इसको अपूर्वकरण गुणस्थान इसलिए कहा गया है कि किसी आत्मोत्थानकारी आत्मा के काल में ऐसी. अपूर्व अवस्था अपूर्व आत्मबल एव आत्म-विशुद्धि प्रगट होती है जैसे पहले कभी नहीं हुई। आठवे गुणस्थान मे प्रवेश करने वाले जीव दो प्रकार के होते हैं-उपशम और क्षपक। जो विकासगामी आत्मा मोह के सस्कारों को दबा करके आगे बढता है और अत मे सर्व मोहनीय कर्म प्रकृति का उपशमन कर । देता है वह उपशमक है। इसके विपरीत जो मोहनीय कर्म के संस्कारो
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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