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अनेकान्त/४३
जो इन्द्रियो के विषयो से तथा त्रस स्थावर जीवों की हिसा से विरत नही हैं, किन्तु जिनेन्द्र द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है. उसे अविरत सम्यकदृष्टि कहा गया है अथवा जिसके अतरंग में निज परमात्म स्वरूप की भावना से उत्पन्न परम सुखामृत में प्रीति है, परन्तु बाह्य विषयों से विरक्ति नहीं होने से जो व्रतों को धारण नहीं करता. उसे अविरत सम्यकदृष्टि कहते हैं।
देशसंयत-मात्र लग्नशील होने से भी कुछ नहीं होगा, उसे कर्तव्यशील भी बनना पडेगा। व्यक्तित्व विकास की पांचवीं सीढी पर पांव रखते ही व्यक्ति कर्मयोगी बन जाता है। कर्तव्यशील और कर्मयोगी हो जाने से उसे पूर्व की कक्षायें कीचड सनी लगती है। वह जान जाता है कि जब मैं पूर्व कक्षाओं मे था. तो खारा जल पीता था। अब मुझे मीठा जल मिल रहा है तो खारे जल का सेवन करना बेवकूफी नहीं, तो क्या है? व्यक्तित्व की इस पाचवी कक्षा में पढ़ने वाला स्वयं को तो सस्कृत बनाने मे लगा ही रहता है। दूसरो को आगे बढ़ाने और सच्चाई को कायम करने मे भी वह अपनी शक्तियों को समायोजित कर लेता है। उसके कदम उडान भरने लगते है. महकते बदरी वन की ओर।
जो जीव जिनेन्द्र देव मे अद्वितीय श्रद्धा को रखता हुआ त्रस जीवो की हिसा से विरत और उसी ही समय मे स्थावर जीवो की हिसा से अविरत होता है तथा बिना प्रयोजन स्थावर का भी वध नही करता है, उस जीव को विरताविरत कहते है अर्थात् उसे सयमासंयमी वा देशसंयत कहा जाता है। अर्थात् कुछ अशो में संयत हो और कुछ मे असयत हो।
प्रमत्तविरत-आगे उसकी यात्रा तो होती है, पर यात्रा करते-करते परिश्रान्त भी तो हो जाता है। मजिले अपनी जगह होती हैं, रास्ते अपनी जगह रहते है, अगर कदम ही साथ न देंगे तो मुसाफिर बेचारा क्या करेगा, इसलिए विश्राम के लिए इस छठे मील के पत्थर के पास एक विश्रामगृह है. आरामगृह है। यहाँ रुककर आदमी थोडा दम भरता है,