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________________ अनेकान्त / ११ गण्डा - ताबीज प्रदान करना या विधानों या पंचकल्याणकों के भव्य आयोजन करने की प्रेरणा देना। इन सब कार्यो के पीछे दूसरा ही एजेण्डा रहता है - वह है अपने प्रायोजित संकल्पित कार्यो के लिए अधिकतम धन-संग्रह करना । दूसरे एजेण्डे के क्रियान्वयन के अनेक रूप हो सकते हैं, मसलन- कैलाश पर्वत. अकृत्रिम चैत्य-चैत्यालयों की स्थापना, ढाई द्वीप की रचना, विदेह क्षेत्र, तीन लोक की स्थापना, रथ-प्रवर्तन आदि -आदि । चूँकि श्रद्धालु श्रावकों ने इनको सुना भर है, सो वह इन कार्यो को तन-मन-धन से सहायक होने का सुअवसर देखकर, अपनी बन्द थैलियों का मुँह उदारता के साथ खोलने मे अपना अहोभाग्य मानता है । भले ही, बाद में अपने को वह ठगा सा महसूस करे । इसकी प्रतिध्वनि यदा-कदा इस प्रकार सुनाई पडती है कि अरे ! क्या बतायें। अमुक ने कहा तो मैं मना नहीं कर सका। वैसे तो अपने पास समय है नहीं, फिर यह अवसर मिला। उस पर अमुक आचार्य ने प्रेरणा की तो सोचा कि कुछ धर्म ही कर लें । आज नब्बे प्रतिशत श्रावको के मन में अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति है। सभी महसूस करते हैं और एकान्त में चर्चा भी करते हैं कि क्या हो गया है हमारे साधुओं को। गृहस्थ से भी ज्यादा आकांक्षाओ और धन की तृष्णा को देखकर तो ऐसा लगता है कि इससे सुन्दर व्यापार और कोई नही हो सकता । वेष धारण करो योजना बनाओ श्रावकों को जोडो- तोडो । कार्य सिद्ध । कुल मिलाकर स्थिति यह हो गई है ► मुनि बनन ते तीन गुण, सब चिन्ता से छुटकार । बहु यश औ धन मिले, लोग करें जयकार ।। जबकि हमारे परम्परित आचार्यो ने श्रावकों एवं श्रमण मुनि के लिए जो भी मानदण्ड स्थापित किए हैं, वे पूर्णत सार्वकालिक हैं । आचार्य समन्तभद्र ने सम्यग्दर्शन को सर्वाधिक महत्त्व दिया है, जिसके अन्तर्गत नि शंकित. निष्काक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना अगो को आवश्यक तत्त्व निरूपित किया है। आज ठीक उसके विपरीत श्रद्धान के वशीभूत कार्य निष्पन्न होते देखकर सन्ताप होता है ।
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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