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________________ अनेकान्त / १२ बाह्य-आडम्बर, क्रिया-काण्ड, जिसका जैन- शासन मे कोई स्थान नही है. वह पूरी तरह प्रविष्ट हो चुका है। जैनेतर माधुओ की तरह ही आरम्भ-परिग्रह में सलिप्त दिगम्बर साधु भी प्रवृत्ति कर, मठाधीश जैसी प्रवृत्तियो का संवाहक बन रहा है । यदि यह कहा जाय कि आज साधु-संस्था वीतरागता की आड में परिग्रह के ही मकडजाल में उलझ गई है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। पिच्छि- कमण्डलु की मर्यादा से बधा श्रद्धालु श्रावक मौन होकर उनके अभीष्ट कार्यो को सम्पन्न करने / कराने में दत्त-चित्त है। आदर्श स्वरूप साधु की इन प्रवृत्तियो को किस श्रेणी में रखे यह ''विज्ञ श्रावको'' की सहज चिन्ता है। तिल - तुष मात्र परिग्रह भी निर्ग्रन्थता को मूल्यहीन बना देता है । शास्त्रोक्त वचन भी है- "बहारम्भ परिग्रहत्त्वं नारकस्यायुषः” । क्या हमारे साधु इस आगम वाक्य से परिचित नही है ? लोक मे कहा जाता है कि जिस साधु के पास दो कौडी वह दो कौडी का और जिस गृहस्थ के पास कौडी नही, वह दो कौडी का । वस्तुत. दिगम्बर जैन धर्म की मूलभूत शिक्षा ही अपरिग्रही वृत्ति है, त्याग प्रधान है, न कि त्यागियो के लिए ही त्याग का । गृहस्थ का त्याग यदि साधु के पास एकत्र हो जाए तो उस स्थिति मे गृहस्थ ही अपरिग्रही ठहरेगा, साधु नही । साधु-सस्था के निर्वाह का उत्तरदायित्व श्रावको का है. इसमे कोई दो राय नहीं और धर्मभीरु श्रावक इस कर्तव्य को पूरी निष्ठा के साथ निर्वाह कर रहा है, परन्तु हमारे परमपूज्य साधुओं को भी विचार करना चाहिए कि क्या इन्ही यश - लिप्सा, धन-लिप्सा और विभिन्न योजनाओ को मूर्त रूप देने के लिए ही असिधारा - व्रत को अगीकार किया था? क्या ये ही निर्ग्रथ वीतराग मार्ग का पाथेय है? तप-सयम की क्या यही फलश्रुति है कि नित नये काल्पनिक तीर्थो का सृजन किया जाये ? जब चाहे तब विधान - अनुष्ठान आदि के लिए लोगों को उत्प्रेरित किया जाये? हमे याद है कि पहिले जब कभी किसी श्रावक को उद्यापन या विधान करवाने की इच्छा होती थी, तब सामान्य सूचना मात्र से लोगों मे उत्साह का संचार हो जाता था। उसके लिए समाज के प्रचुर धन को आज की तरह टेन्ट, गाजे-बाजे, शान-शौकत भरे दिखावे मे व्यर्थ नहीं बहाया जाता था। आजकल के प्रदर्शन भरे आयोजनों से किस प्रकार
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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