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________________ परिग्रह के दलदल में फंसा अपरिग्रही धर्म पं. पद्मचन्द्र शास्त्री - इस समय जैन समाज विधानो के आयोजन मे आकण्ठ डूबी हुई है। जहाँ तक निगाह जाती है- विधान ही विधान और विधानो के लिए वर्तमान मे परमपूज्य गुरुओ के सान्निध्य मिलने की सूचनाओ से रंग-बिरंगे, मनोहारी एव आकर्षक पोस्टरो से मदिरो की दीवारे अटी पड़ी है। जैन समाज की वैभव की झाकी यदि देखनी हो, तो मंदिर जी के सूचना पट्ट की ओर ही देखने की आवश्यकता है । स्वत ज्ञात हो जायेगा कि आज के श्रावक के पास धन और समय की कोई कमी नहीं है। विधान चाहे आठ दिन का हो या पन्द्रह दिन का अथवा इक्कीस दिन का। लोगों मे इन पाठों में भाग लेकर पुण्योपार्जन प्राप्त करने की होड आसानी से देखी जा सकती है। लगे हाथ गुरु का आशीर्वाद भी मिलता है, जिससे ऐहिक आकाक्षाओं की पूर्ति की गारंटी का सुखद आश्वासन मिलता है। ऐसे ही एक पोस्टर पर निगाह पड़ी, जिसमे लिखा था कि इस विधान में भाग लेने पर "सौभाग्य, जीवन मे सभी प्रकार के सकट - हरण, पापनाश, कर्मक्षय. शारीरिक पीडा विनाश, आरोग्य लाभ, धन-धान्य वृद्धि और भव्य वैभव प्रकट होकर परम्परा से मोक्षप्राप्ति की सीढी बन सकती है। घर में प्रत्येक प्रकार की बाधाये, उपसर्ग दूर हो जाते है. अक्षय पुण्य की प्राप्ति व सभी सम्पदाये, मनोकामनाये पूरी हो जाती है । " ' पोस्टर की उपर्युक्त पंक्तियाँ लुभावनी लगीं। लोभ आखिर किसे नहीं होता ? सांसारिक मनुष्य तो ससार-भोगों के प्रति तीव्र - लालसा रखता ही है और उन लालसाओ की पूर्ति यदि गुरु - सान्निध्य और आठ दस, पन्द्रह दिनो के पाठ में भाग लेने मात्र से हो जाये, तो भला कौन सुधी श्रावक चूकेगा? फिर निरन्तर लाभ-हानि का लेखा-जोखा रखने वाला व्यापारी वर्ग भला कैसे चूक सकता है? चूकता तो बेचारा वह है, जो गाँठ का पूरा
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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