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________________ अनेकान्त/५ को तथा पूर्णतया त्याग का साधओ को क्रमश पंचाणव्रत और पच-महाव्रत के रूप में उपदेश दिया। हमारे समाज की विडम्बना यह है कि हम पूर्व के चार को तो पाप समझते है तथा उनसे घृणा भी करते है, पर परिग्रह को हमने पाप माना ही नही है। यही कारण है कि हम परिग्रह के दीवानेपन के कारण बाप तक को धोखा देने से नहीं चूकते हैं। इस परिग्रह के निमित्त हम हिंसा करने से नहीं हिचकते, झूठ बोलने मे नहीं चूकते एव चोरी को धनार्जन का माध्यम बनाते जा रहे है। परिग्रह में ममत्व कशील सेवन का हेतु बनता ही है, यह किसी से भी छिपा नहीं है। फलत परिग्रह लिप्सा हमें पांचो पापों में फसा रही है। ऐसे समय में भगवान् महावीर का परिग्रह को सीमित करने का उपदेश सर्वथा प्रासंगिक तथा समाजोपकारी है। भगवान् महावीर ने कहा है कि प्राणी को सुख-दुख की प्राप्ति अपने कर्म के अनुसार ही होती है। जीव स्वयं अपने भाग्य का विधाता है। किसी शक्ति को प्रसन्न करके अपने कर्मो के फल को भोगने से बचना सभव नही है। भगवान् महावीर की दृष्टि मे जाति व्यवस्था जन्मना नही कर्मणा मान्य है। उत्तराध्ययनसूत्र मे कहा गया है कम्मुणा बंभणो होई, कम्मुणा होई खत्तिओ। वईसो कम्मुणा होई, सुद्दो हवई कम्मणा।। अर्थात् कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है तथा कर्म से शूद्र होता है। भगवान् महावीर के ये विचार वर्तमान में जातिगत वैमनस्य को दूर करने मे सर्वथा प्रभावी एव उपादेय हैं। महावीर स्वामी ने कहा है कि एक गृहस्थ को व्यसनमुक्त जीवन जीना चाहिए। भले ही वह श्रावक के मूलगुणों का परिपालन कर सकता हो या नहीं, उसे मांस, मदिरा, वेश्यागमन, परस्त्री सेवन. जुआ, चोरी और शिकार जैसे व्यसनो का त्यागी अवश्य होना चाहिए। व्यसनमुक्त समाज ही समृद्ध और समुन्नत हो सकता है।
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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