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________________ भय 53/3 अनेकान्त/23 'विरुद्धैरविरुद्धैर्वा भावैर्विच्छिद्यते न यः। आत्मभावं नयत्यन्यान् स स्थायी लवणाकरः। अर्थात् जो भाव अपने विरोधी या अविरोधी भावों से विच्छिन्न न हो तथा अन्य भावों को अन्य रूप बना ले, समुद्र के समान वह भाव स्थायी-भाव कहलाता है। मनःसंवेगों को स्थायी-भावों के साथ साम्य इस प्रकार देखा जा सकता है - स्थायी-भाव मनःसंवेग रति कामुकता Lust Emotion हास उल्लास Feeling of Laughing शोक दुःख Feeling of appealing क्रोध SATET Anger Emotion उत्साह उत्कर्ष Positive Self Feeling. भय Fear Emotion जुगुप्सा जुगुप्सा Disgust Emotion विस्मय कौतूहल Wonder Emotion निर्वेद (शम) अपकर्ष Negative Self Feeling वात्सल्य वात्सल्य Tender Emotion इन मनःसंवेगों के अतिरिक्त माने गये भूख (Appetite), सामूहिकता (Loneliless), स्वामित्व (Ownership) तथा सृजन (Construction) आदि । मनःसंवेगों के रस का कोई साक्षात् सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता है। वास्तव में ये मौलिक मनःसवेग भी नहीं कहे जा सकते हैं। वास्तविक मनःसंवेग तो नौ या दस ही है, जिन्हें आचार्यों ने नौ या दस रसों के स्थायी-भावों के रूप में स्वीकार किया है। इससे यह स्पष्ट है कि काव्य के रस के स्थायी-भावों का सिद्धान्त भी पूर्णतया प्राचीन मनोविज्ञान के सिद्धान्त पर आधारित है। जैन-दर्शन में आठ कर्मों की स्वीकृति है। इनमें मोहनीय कर्म को सब कर्मो में प्रधान कर्म कहा गया है। राग और द्वेष मोहनीय कर्म रूपी बीज से ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए ज्ञानरूपी अग्नि से मोहनीय रूपी बीज को नष्ट करने की बात जैन-शास्त्रों में कही गई है। दुःख का मूल कारण ये राग और द्वेष भाव ही हैं, क्योंकि ये दोनों भाव कर्म के बीज हैं। कर्म ही जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण से दुःख होता है। मनोविज्ञान के अनुसार भी अनुभूतियाँ दो प्रकार की मानी गई हैं-प्रीत्यात्मक और अप्रीत्यात्मक । प्रीत्यात्मक
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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