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अनेकान्त/६
में मान, वचन, काय से किए हुए दोषों का शोधन करने वाला है। .
कम्मं जं पुबकदं सुहासुह अणेय विल्थर विसेसं।
ततो णियतदे अप्पयं सु जो सो पडिक्कमणं ।। अर्थात पूर्व में किए हुए अनेक विस्तार वाले शुभ-अशुभ कर्मों से जो निवृत्ति कराता है वह प्रतिक्रमण है।
इस प्रकार जैनाचार में प्रतिक्रमण दोषों को दूर करने का मुख्य साधन है। इसमें पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा होती है। निर्जरा संवर पूर्वक हो तब ही वह निर्जरा मान्य है। इस प्रकार संवर रूप समस्त व्रत, संयम, शील, तप, आराधना आदि प्रतिक्रमण की कोटि में आ जाते हैं, क्योंकि वे जीव को प्रमाद जनित दोषों से दूर रखते हैं। यह निम्नलिखित आर्षवचनों से भी स्पष्ट है
प्रतिक्रमण दण्डक मोत्तूण अणायारं जो कुपदि थिर भावं।
अणाचारं पणिवज्जामि। सो पडिक्कमणं उच्चउ पडिक्कमणमओ हवे जम्हा।। आचारं उपसंपज्जामि।।
___-नियमसार गाथा।। 85 ।। अनाचार को पूर्ण रूप से जो अनाचार को छोड़कर आचार में
छोड़ता हूं। स्थिर भाव करता है वह प्रतिक्रमण
आचार को प्राप्त करता हूं। है। उससे प्रतिक्रमणमय होता है।
वत्ता अगतिभावं तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो साहू। अगुत्तिं परिवज्जामि। सो पडिक्कमणं उच्चई पडिक्कमणमओ हवे जम्हा।। गुत्ति उपसंपज्जामि ।।
-नियमसार ।। 88 ।। अगुप्ति को छोड़ता हूं और जो साधु अगुप्ति भाव को छोड़कर त्रिगुप्ति से गुप्ति को प्राप्त करता हूं। रक्षित है वह प्रतिक्रमण है, उससे वह प्रतिक्रमणमय होता है।
मोत्तूण अट्ठरुदं झाणं जो झााह धम्मसुक्कं वा। अट्ठ रुदं झाणं वोस्सरामि। सो पडिक्कमणं उच्चई जिणवरणिहिद्दिष्ट सुत्तेसु।। 89 ।। धम्मसुक्कज्णाणं अमुठमि।। जो आर्त-रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्मशुक्ल ध्यान आर्त-रौद्र ध्यान को छोड़ता को ध्याता है उसे जिनवरों से निर्देशित सूत्र में हूं धर्म-शुक्ल ध्यान में स्थिर प्रतिक्रमण कहते हैं।
होता हूं।