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प्रतिक्रमण सभी नयों से अमृत कुम्भ है
-श्री रूपचन्द्र कटारिया
जिन शासन में जीवों को दोषों से दूर कर शुद्धता प्राप्त करने का विधिपरक उपदेश है। जिनेन्द्र देव दोषों से मुक्त होकर शुद्धता को प्राप्त हैं : इससे उनके वचन प्रमाण हैं और वह उपदेश आगम संज्ञा को प्राप्त है। इस प्रकार आगम केवलियों, श्रुत केवलियों, गणधरों और आगम के ज्ञाता ज्ञानियों के द्वारा परम्परित हुआ है। उसमें विस्तारपूर्वक छह आवश्यक नित्य करने को कहे गए हैं। वे सभी आवश्यक कर्मो की निर्जरा करने वाले और मुक्ति के मार्ग हैं। इस सम्बन्ध में नियमसार की निम्न गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द स्पष्ट रूप से कहते हैं
जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्मं मणंति आवासं।
कम्म विणासण जोगो णिबुदि मग्गोत्ति पिज्जुत्तो।। 141।। अर्थात् जो अन्य के वश में नहीं होता है उसके कर्म को आवश्यक कहा गया है। वह कर्म का नाश करने में योग्य है। इस प्रकार उसे निर्वाण का मार्ग कहा गया हैं
इस प्रकार षट् आवश्यकों को निर्वाण मार्ग की संज्ञा प्राप्त है। उन आवश्यकों में एक प्रतिक्रमण भी है। वह प्रतिक्रमण पूर्व में किए हुए दोषों से निवृत्ति कराता है। जैसाकि प्रतिपादित है“जीवे प्रमादजनिता प्रचुरा प्रदोषाः परमात् प्रतिक्रमणतःप्रलयं प्रयान्ति।"
-श्रमणचर्या -जीव में प्रमाद जनित प्रचुर दोष है : वे प्रतिक्रमण से प्रलय को प्राप्त होते हैं।
दव्वे खेते काले भावे य कदावराह सोह जयं ।
जिंदण गरहणजुत्तो मणवचकायेण पंडिक्कमणं ।। -श्रमणचर्या अर्थात निंदा-गरहा पूर्वक (युक्त) प्रतिक्रमण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव