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________________ अनेकान्त/१० उम्मग्गं परिचत्ता जिणमग्गे जो दु कुणदि थिरभावं। उम्मग्गं परिवज्जामि। सो पडिक्कमणं उच्चई पडिक्कमणमओ हवे जम्हा।। जिणम्म उपसंपज्जामि।। -नियमसार ।। 86 ।। उन्मार्ग को छोड़ता हूं और जो उन्मार्ग (मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारिया) को सम्यक् रूप से जिनमार्ग छोड़कर जिनमार्ग (सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र) को प्राप्त करता हूँ। में स्थिर भाव को करता है वह प्रतिक्रमण है, उससे वह प्रतिक्रमण युक्त हो जाता है। अभाषियं भावेमि। भावियं ण भावेमि। मिच्छत्त पहडि भावा पुबंजीवेण भाविया सदरं। सम्मत्त पहुडि भावा अभाविया होति जीवेण।। . -नियमसार ।। 90 ।। मिथ्यात्व प्रभृति भावों को जीव ने अनन्तकाल से भाया है और सम्यक्त्व प्रभृति भाव जीव से अभावित हैं। अभावित को भाता हूं और भावित को नहीं भाता हूं। मिच्छा सण णाणं चरित्तं चइउण णिरवसेसेण।। मिच्छा दसण मिच्छाणाण सम्मत्त णाण चरणं जो भावइ सो पडिक्कमणं ।। मिच्छा चरित्तं परिणरोमि। -नियमसार।। 91।। सम्मणाण दंसण सम्म वारितंव रोचेमितजं जिणवरेहिं पण्णत्तं। मिथ्यादर्शन, ज्ञान चरित्र को सम्पूर्ण रूप से छोड़ मिथ्या, दर्शन, ज्ञान, चारित्र कर जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र को भाता है वह को पूर्णरूप से छोड़ता हूं। प्रतिक्रमण है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र जो जिनवरों से प्रज्ञप्त है में रुचि रखता हूं। उपर्युक्त उल्लेखों के अनुसार सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, गुप्ति, धर्म-शुक्ल ध्यान, आत्मध्यान, आराधना आदि को प्रतिक्रमण कहा है। इसके अतिरिक्त अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग 5, पृष्ठ 262 पर निम्न गाथा उपलब्ध है जिसमें आठ प्रकार का प्रतिक्रमण प्ररूपित है पडिकमणं पडिसरणं पडिहरणं धारणा णियत्ती य। जिंदा गरिहा सोही पडिकमणं अटहा होइ।।
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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