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अनेकान्त/18
महाराज ने भी अपने एक महत्वपूर्ण आलेख में स्पष्ट निर्देश दिया है - "यदि त्यागीवर्ग शास्त्र की मर्यादा या लोकमर्यादा के विरुद्ध आचरण करता है तो उसकी समीक्षा करने का गृहस्थों और विद्वानों को पूर्ण अधिकार है, क्योंकि इसका सीधा प्रभाव समाज पर पड़ता है।" एक मासिक पत्रिका 'महावीर मिशन' के जून 99 के अंक में प्रकाशित अग्रलेख की ये पंक्तियां भी दृष्टव्य हैं- “शरीर में यदि कोई रोग हो और उसका समय पर इलाज न किया जाए तो वह असाध्य हो जाता है । शीलभंग जैसे रोग का इलाज न किया गया तो वह भी एक दिन भयंकर रूप ले लेगा ।"
शील - दोष एवं आगमग्रन्थ
मूलाचार एवं भगवती आराधना में साधुओं की आचार संहिता का वर्णन है । साधु-संस्था में शीलगुण की सुरक्षा पर इन दोनों ही ग्रन्थों में बहुत जोर दिया गया है। किसी आर्यिका से एकान्त में वार्तालाप का निषेध, गणिनी की उपस्थिति में ही किसी आर्यिका को प्रायश्चित्त देने का विधान, जहां आर्यिकाएं निवास करती हों, वहां खड़े रहने या बैठने की मनाही आदि नियमों के परिपालन का निद्रेश शील की सुरक्षा के लिये ही हैं। एक आचार्य लिखते हैं कि जीवित स्त्री की तो बात ही छोड़िये, मिट्टी, पत्थर, लकड़ी या चित्रादि में निर्मित स्त्री का शरीर देखकर भी मनुष्य मोहित हो जाता है । इसीलिये मूलाचार में किसी तरुण स्त्री के साथ वार्तालाप करने आज्ञा- लोप, अनवस्था, आत्मनाश, मिथ्यात्वाराधन और संयम - विराधना जैसे पांच दोषों की उत्पत्ति की बात कही
है । आर्यिकाओं द्वारा आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठी की वन्दना क्रमशः पांच, छह और सात हाथ की दूरी से करने के नियम की पीछे भी अपने-अपने शील की संभाल करने या रखने का एक विनम्र प्रयास ही है ।
भगवती आराधना में लिखा है- 'आर्यिकासंगतेः साधोरपवादो दुरुत्तरः ' अर्थात् आर्यिकाओं की संगति में लोकमान्य वृद्ध साधु की भी दुर्निवार निन्दा होती है, साधारण साधु की तो बात ही क्या है। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि काममलिन मुनि की आत्मा तो मलिन होती ही है, उसके दीक्षा एवं तपोजन्य सम्पूर्ण पुण्य भी नष्ट हो जाते हैं। जो शील से रहित है, उसका मनुष्य