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अनेकान्त / 19
भव निरर्थक है । 'शील पाहुड़' की 30 वीं गाथा में कहा गया है “विषयासक्त साधु नेन भाव-शुद्धि होती है ओर न सम्यक्त्व की । विषयासक्त दश पूर्व का पाठी रुद्र नामक साधु भी नरक गया था ।" 'लिंग पाहुड़' में तो कामवासना में लिप्त साधु को तिर्यंचयोनि अर्थात् पशु-तुल्य कहा गया है (देखें - गाथा सं० 13 ) । ठीक ही है - 'ब्रह्मचर्यस्य भंगेन व्रतं सर्व निरर्थकम् ' । नीतिशास्त्र भी कहता है 'एकतः सकलं पापं, शीलभंगोत्थमेकतः तयोः स्याच्चान्तरं नूनं मेरुसर्षपयोरिव '
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अर्थात् - - अन्य सारे पाप तराजू के एक पलड़े में हों और शीलभंग का पाप हो तराजू के दूसरे पलड़े में तो इन दोनों में मेरु पर्वत और सरसों के समान अन्तर होता हैं
आर्यिकाओं के लिये कहा गया है - 'जीवन्त्योऽपि मृता ज्ञेयाः शीलहीनाः नृयोषिताः' । शीलहीन नारियां जीवित भी हों तो उन्हें मृत समझना चाहिए । आज कुछ साधु धन, यश और स्त्री के पीछे भाग रहे हैं। कामिनी और कंचन संकट के कारण हैं, यह बात साध्वी इन्दुप्रभा, संध्या-सन्मतिसागर एवं मुनि लोकेन्द्रविजय जैसे कांडों के बाद तो अब सबकी समझ में आ जानी चाहिए थी, किन्तु दुःख है कि यह रोग कम होने की जगह बढ़ता ही जा रहा है । यह स्थिति चिन्तनीय है ।
आज ऐसी लज्जास्पद घटनाओं से हर समाज हतप्रभ और पीड़ित है । अभी हाल में स्थानकवासी साधु-संघ में ऐसी ही एक घटना ने समाज को उद्वेलित कर दिया है। इस घटना के संदर्भ में एक विद्वान् ने लिखा है- 'ऐसा नहीं है कि ऐसी घटनाओं के पीछे कोई सत्यता नहीं होती । कहते हैं कि धुआँ वहीं होता है, जहां थोड़ी-बहुत आग होती है ।' किसी शायर ने भी लिखा है" धुआं उठता नहीं यूं ही, सुलगती हैं नहीं लपटें दबी हो एक चिनगारी, वहीं शोला भड़कता है"
आज हमारे कुछ गृहस्थ भाई या तो इन शोलों को अपने गर्मागर्म व्याख्यानों से और भड़काते हुये देखे जाते हैं अथवा श्रद्धा के अतिरेक में इन पर पानी डालते रहते हैं। दोनों ही स्थितियां ठीक नहीं हैं। प्रश्न इन्हें उघाड़ने या छिपाने का नहीं हैं। आवश्यकता इस बात की है कि समाज के सभी संत,