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________________ शिथिलाचार : एक अनुचिन्तन सर्वाधिक चिन्तनीय है शील- शैथिल्य स्थानकवासी जैन महासंघ का एक अभूतपूर्व निर्णय - नरेन्द्र प्रकाश जैन जैन साधु निरन्तर संवर एवं निर्जरा के मार्ग पर चलने की कोशिश करते हैं। आस्रव एवं बंध के कारणों से यथाशक्ति और यथासंभव वे स्वयं को बचाते हैं। उनके जीवन में यदि स्वकृत या परकृत आपत्तियाँ भी आती हैं तो वे समता भाव से सहन करते हैं । आगम की भाषा में इस सहन-शक्ति को परीषहजय कहा गया है । विविध प्रकार के परीषहों को शान्त चित्त एवं स्वेच्छा से सहन करते रहने के अभ्यास से साधु में मोक्ष मार्ग से च्युत न होने अथवा आपत्तियों में भी अविचलित बने रहने की क्षमता का विकास होता है । इसी क्षमता के बल पर हमारे संतों ने सर्प, व्याघ्र, सिंह आदि हिंसक जीवों के उपसर्गो अथवा भूख-प्यास, निन्दा - अपयश, वध-बन्धन आदि की बाधाओं को हँसते-हँसते सहन किया है । परीषह बाईस होते हैं। उनमें से कुछ परीषहों से बचने के लिये शोर्टकट रास्ते भी तलाशे जाने लगे हैं, जैसे- उष्ण और शीत परीषहों से बचने के लिये अब कहीं-कहीं कूलर और हीटर का सहारा लेने में कुछ साधुओं को कोई हिचक नहीं होती। दंशमशक परीषह से, चाहे आंशिक रूप में ही सही, छुटकारा पाने के लिये कछुआ छाप अगरबत्ती अथवा गुडनाइट या मार्टिन सरीखे साधनों को अपनाये जाते हुये भी हमने कहीं-कहीं देखा है । ऊँची-नीची या कठोर किन्तु निर्दोष भूमिजन्य बाधा को शान्ति से सहन करना शैयापरीषहजय कहलाता है । सुना है (देखा नहीं है) कि एक संघ में इसका भी विकल्प ढूंढ लिया गया
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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