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________________ अनेकान्त/15 सल्लेखना का धारक होता है। शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात् शरीर धर्मसाधना का प्रथम साधन है। अतः जब तक शरीर धर्मसाधना के अनुकूल रहे तब तक उसके माध्यम से धर्मसाधना करनी चाहिए। किन्तु यदि शरीर धर्म-साधना के प्रतिकूल हो जावे या फिर शरीरनाश का अपरिहार्य कारण उपस्थित हो जाये तो सल्लेखना धारण कर लेना चाहिए। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा या रोग के उपस्थित होने पर तथा उनका प्रतीकार संभव न होने पर धर्म की रक्षा के लिए सल्लेखना धारण करना चाहिए। उनके अनुसार सल्लेखना का आश्रय लेना ही जीवन भर की तपस्या का फल है। यह साधन की साधना का निकष है। सल्लेखना से अन्त समय में भी समता धारणा करने की भावना बलवती होती है। समाज सल्लेखनाधारी द्वारा हँसते-हँसते मृत्यु का वरण देखकर मृत्यु से भय त्याग देता है, जिससे उसमें निर्भयता आती है तथा अपने पड़ोसियों की रक्षा में सच्चे वीर का पराक्रम दिखाने की भावना उत्पन्न होती है। क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी के शब्दों में – “सल्लेखना वस्तुतः शान्ति के उपासक की आदर्श मृत्यु है। एक सच्चे वीर का महान् पराक्रम है। इससे पहले कि शरीर जवाब दे, वह स्वयं समतापूर्वक उसे जवाब दे देता है और अपनी शान्ति की रक्षा में सावधान रहता हुआ उसी में विलीन हो जाता है। पं० सूरजमल जी ने भी समाधिमरण में कहा है - 'मृत्युराज उपकारी जिय को, तन से तोहि छुड़ावै। नातर या तन बन्दीगृह में, पर्यो-पर्यो दिललावै।।' उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि व्यसनमुक्ति, स्वस्थ शरीर, मन की निर्मलता, संसार की भुखमरी एवं गरीबी से छुटकारा न्योयापात्त धन से सहज जीवनयापन, पर्यावरण संरक्षण तथा तनावमुक्ति के लिए तो समाज को श्रावकाचार के परिपालन की आवश्यकता है ही, अपना मरण सुधारने के लिए इसकी विशेष आवश्यकता है। रीडर-संस्कृत विभाग एस. डी. कालेज, मुजफ्फरनगर 8. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 122-123 9. मुक्ति पथ के बीज
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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