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अनेकान्त/13
आवश्यकता से अधिक सम्पत्तियाँ प्राप्त हों तो समाज एवं देश के हित में उनके उपयोग करने का विधान भी है। अधिक धन का होना बुरा माना गया है, परन्तु यदि वही धन परोपकार में लगा हो तो उसे ही अच्छा कहा है-'बहुधन बुरा हूँ भला कहिये लीन पर उवगार सों।" श्रावक की आचारसंहिता में स्वीकृत न्यायोचित धनार्जन से परिपालन से समाज की अनेक बुराईयाँ समाप्त हो सकती हैं तथा व्यक्ति प्राकृतिक रूप से सहज जीवन-यापन कर सकता है। जैन धर्म का मूल सिद्धान्त 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' (जिओ और जीने दो) के रूप में बहुप्रचारित है। यदि हम न्योयापात्त धनार्जन की बात को ही अपने जीवन में उतार लें तो इस भावना की रक्षा कर सकते हैं।
श्रावकाचार और पर्यावरण संरक्षण - वैज्ञानिकों की अवधारणा है कि सूर्य और पृथ्वी के मध्य आकाश में विद्यमान ओजोन परत टूट रही है। पृथ्वी पर आक्सीजन का स्रोत यही परत है। इसका टूटना पृथ्वी पर जीवधारियों के जीवन को खतरे की घण्टी है। क्योंकि सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी . पर सीध पड़ेगी तो त्वचा का कैंसर तथा आँखों के अनेक रोगों की संभावना बढ़ जावेगी। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश पर्यावरण के मूल आधार हैं। औद्योगीकरण, यातायात के यान्त्रिक साधन, लाउडस्वीकरों की तेज ध्वनि, दूषित हवा, दूषित पानी वनों की कटाई, भूमि की अन्धाधुन्ध खुदाई, प्राकृतिक साधनों का अनियन्त्रित उपयोग, रासायनिक कचरा, मांसाहार आदि के कारण आज पूरा पर्यावरण प्रदूषित हो चुका है और पर्यावरण प्रदूषण ने एक भयानक समस्या का रूप धारण कर लिया है। यदि श्रावकाचार के सिद्धान्तों में केवल अहिंसाणुव्रत को ही अपना लिया जावे तो हम पर्यावरण प्रदूषण की विकराल समस्या का निदान पर सकते हैं। निरन्तर खुदाई के कारण मिट्टी प्रदूषित हो गई है। खनन से उत्पन्न रासायनिक गैसें तथा धूलि कणों ने फेफड़ों एवं गले के रोगों को जन्म दिया है। श्रावकाचार में निष्प्रयोजन पृथ्वी के खनन को त्याज्य कहा गया है। इसके स्वीकार करने से हम मृदा प्रदूषण से बच सकते हैं। इसी प्रकार जल में रासायनिक पदार्थ, मल आदि न डालकर हम श्रावकाचार
7. दशलक्षणपूजा, द्यानतराय (आकिंचन्य धर्म)।