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अनेकान्त/12
फैशन समझने लगे हैं। झूठे आश्वासन, कथनी एवं करनी में अन्तर तथा अपने बयान को अन्यरूप बदलना अब सामान्य-सी बात लगती है। चोरी ने नया रूप धारण कर लिया है। कर बचाना, मिलावट करना, कम-बढ़, माप-तौल करना आदि अब व्यापारी अपनी कुशलता समझते हैं। कामपिपासा ने एड्स जेसी भयंकर बीमारी का रूप धारण कर लिया है। बलात्कार के समाचार पढ़कर अब कान पर जूं नहीं रेंगती है। वासना को अब व्यवसाय मानने का आन्दोलन करने की तैयारी है। परिग्रही को अब समाज में धार्मिक कहा जा रहा है। उपभोक्तावाद की प्रवृत्ति ने परिग्रह पिशाच को उपादेय मान लिया है। ऐसी स्थिति में यदि समाज का भला हो सकता है तो मात्र अणुव्रतों के पालन से ही। अहिंसाणुव्रत हमारी संकल्पी हिंसा को रोक सकता है तो सत्याणुव्रत झूठ एवं आडम्बर के जीवन से हमें बचा सकता है। अचौर्याणुव्रत हमें चोरी करना, चुराई गई वस्तु को खरीदना, राज्य के नियमों का उल्लंघन करना, न्यूनाधिक माप-तौल करना तथा मिलावट करने जैसे असामाजिक दृष्प्रवृत्तियों से निजात दिला सकता है।' ब्रह्मचर्याणुव्रत की धारणा से आन्तरिक शक्ति का विकास समाज को बचा सकते हैं। परिग्रहपरिमाणाणुव्रत 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना को विकसित करके
आवश्यकता से अधिक घनसंग्रह की प्रवृत्ति को रोककर समतामूलक समाज का निर्माण कर सकता है। भोगोपभोग की वस्तुओं के परिमाण से संसार गरीबी एवं भुखमरी से बच जायेगा तथा जरूरत से अधिक संग्रह करने वाले रोग भी दिन-रात निष्प्रयोजनभूत धनार्जन के संताप से अपने आप को बचा सकेंगे।
न्यायोपात्त धन से सहज जीवनयापन - गृहीश्रावक को धनार्जन की रोक नहीं है। यहाँ तक कि जो ब्रह्मचारी आज समाज को त्यागकर अपने को-साधु समझकर समाज पर आश्रित बनते जा रहे हैं, उन्हें भी आवश्यकतानुसार सीमित धनार्जन की छूट है। जीवनयापन के लिए गृहस्थ को धन की आवश्यकता होती ही है। किन्तु हमें अपने विलासितामय जीवन के लिए अन्धाधुन्ध धनार्जन/अन्यायपूर्वक धनार्जन की छूट नहीं दी गई है। यदि पुण्योदय से हमें 6. द्रष्टव्य अचौर्याणुव्रत के अतिचार 'स्तेन प्रयोग तदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरुपकव्यवहाराः पञ्च ।' तत्त्वार्थसूत्र -7-27