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अनेकान्त/10
दे रही है, यह व्यसन को व्यसनरूप न मानने का दुःखद पहलू है।
उक्त सप्त व्यसनों के त्याग से ही व्यसनमुक्त सुखी समाज की संभावना की जा सकती है। अतः श्रावक की आचार-संहिता के प्राथमिक चरण के रूप में समाज में सप्तकव्यसनत्याग की महती आवश्यकता है।
मूलगुण-स्वस्थ शरीर एवं निर्मल मन के आधार - श्रावक की स्थिति में मूल या नींव रूप होने से तथा मोक्ष के मूल कारण होने से श्रावक के प्रमुख गुणों की मूलगुण अन्वर्थ संज्ञा है। इसी प्रकार साधु के प्रमुख गुणों को भी मूलगुण कहा जाता है। कहा भी गया है
'मूलं विना वृक्ष इवालयो च भवेन्न लोके च तयैव साधुः। न जायते मूलगुणान् विनास्माद् एते विमुक्तेरपि मूलमेव।।"
संख्या की दृष्टि से मूलगुण आठ माने गये हैं किन्तु इनके नामों के विषय में दृष्टिकोण पृथक्-पृथक् हैं। कुछ आचार्यो की दृष्टि में मद्य-मांस-मधुत्याग तथा 6 उदुम्बरफल त्याग आठ मूलगुण हैं तो कुछ की दृष्टि में मद्य-मांस-मधुत्याग तथा हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं परिग्रह के एकदेश त्याग रूप पांच अणुव्रत ये आठ मूलगुण हैं। आचार्य जिनसेन ने मधुत्याग के स्थान पर द्यूतत्याग का समावेश किया है। उनकी दृष्टि में मद्यत्याग, मांसत्याग, द्यूतत्याग और पांच अणुव्रतों का पालन आठ मूलगुण हैं। इसी का कथन पण्डितप्रवर आशाधरजी ने इस प्रकार किया है -
'तत्रादौ श्रद्दधेज्जैनीमानां हिंसामपासितुम् । मद्यमांसमधून्युज्झेत् पञ्चक्षीरफलानि च।। अष्टैतान् गृहिणां मूलगुणान् स्थूलवधादि वा।
फलस्थाने स्मरेद् द्यूतं मधुस्थाने इहेव वा।।" पं० लालाराम जी द्वारा सम्पादित सागारचर्मामृत में फुटनोट में एक श्लोक उद्धृत किया गया है, जिसके अनुसार मद्यत्याग, मांसत्याग, मधुत्याग,
3. आराधना - गणिनी आर्यिका, ज्ञानमती, श्लोक88 4. सागारधर्मामृत, 2/2-3