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अनेकान्त / 9
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पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से दिशाहीन युवक व्यसनों के मोहक जाल में निरन्तर फंसता जा रहा है। जैन समाज भी इससे अछूता नहीं है यदि हमें समाज का अस्तित्व चिरस्थायी रखना है तो व्यसनमुक्त समाज का निर्माण न केवल आवश्यक अपितु अनिवार्य मानना होगा। मांसाहार की बढ़ती प्रवृत्ति इन सभी व्यसनों का कारण है । एक मांसाहारी भिक्षु के चित्रण में यह स्थिति स्पष्ट रूप से झलकती है। किसी व्यक्ति के भिक्षु से किये गये प्रश्न और भिक्षु के उत्तरों को संस्कृत के एक श्लोक में दर्शाते हुए मांस की अत्यन्त की गई है। श्लोक इस प्रकार है
भिक्षो! मांसनिषेवणं प्रकुरुषे, किं तेन मद्यं बिना, मद्यं चापि तव प्रियं प्रियमहो वारांगनाभिः सह । तासामर्थरुचिः कुतस्तव धनं द्यूतेन चौर्येण वा, द्यूतचौर्य परिग्रहोऽपि भवतः नष्टस्यकान्या गतिः । । व्यक्ति पूछता है – हे भिक्षु ! तुम मांस का सेवन करते हो मदिरा के बिना उस मांस से क्या प्रयोजन है?
भिक्षु कहता है व्यक्ति फिर पूछता है भिक्षु पूछता है व्यक्ति फिर पूछता है
हां,
भिक्षु कहता है व्यक्ति फिर पूछता है भिक्षु कहता है
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तो तुम्हें मदिरा भी प्रिय लगती है ?
वेश्याओं के साथ पी लेता हूं ।
उनकी धन में रुचि होती है । तुम्हारे पास धन कहां से आता है ?
जुआ अथवा चोरी से ।
तो तुम्हें जुआ और चोरी की लत भी है ? (मांसभक्षण से) नष्ट हो चुके व्यक्ति की और क्या दशा हो सकती है? अर्थात् यही दशा हो सकती है । इस प्रकार मांसाहार को मदिरासेवन, वेश्यारमण / परस्त्रीसेवन, जुआ एवं चोरी का कारण तो इस श्लोक में दर्शाया ही गया है, यह आखेट व्यसन का भी प्रेरक है। यद्यपि आज शिकार जैसा व्यसन बहुप्रचलित नहीं है, तथापि आज के कत्लखाने इसी व्यसन के आधुनिक तरीके हैं। यही नहीं, अब तो बालिकाओं को जन्म न देने के लिए तथा वासना की बढ़ती प्रवृत्ति को अनियन्त्रित चलाने के लिए जैन गृहस्थों में भी भ्रूणहत्या जैसे महापाप को मान्यता मिलती दिखाई
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