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अनेकान्त/8
गुणों के परिपालन एवं सप्तव्यसन के त्याग को अनिवार्य माना गया है। जलगालन, रात्रि भोजन त्याग, प्रतिदिन देव दर्शन श्रावक के लक्षण हैं तथा देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप एवं दान उसकी आवश्यक क्रियाएं हैं। श्रावक मारणान्तिकी सल्लेखना का भी आराधक होता है।
आज जब जैन श्रावकों में भी महापाप के बीज रूप, विवेक के विनाशक तथा सदाचरण के भंजक जुआ, मांस, मदिरा, वेश्यारमण, चोरी, शिकार का नया रूप, भ्रूणहत्या, परस्त्रीरमण ये सात व्यसन बढ़ते जा रहे हों, हिंसा आदि पांच पापों को आजीविका के साधन के रूप में स्वीकार किया जाने लगा हो, भक्ष्याभक्ष्य का विचार तिरोहित हो गया हो, पर्यावरण प्रदूषण के साथ-साथ मानसिक प्रदूषण में भी वह सहयोगी बन रहा हो, अन्याय से अर्जित धन का कुछ अंश तथाकथित धार्मिक कार्यों में व्यय करके अपने को ऊंचा श्रावक समझने की भूल कर रहा हो, 'जिओ और जीने दो' की पावन भावना उसके हृदय से निकली जा रही हो, जीवन तनावग्रस्त हो रहा हो, परिग्रहलोलुपता में सीमातीत वृद्धि हो रही हो, उनके हीन आचरणों से जैन धर्म की गर्दा हो रही हो, अपने आराध्य पूज्य गुरुओं के नाम लेकर समाज में वैमनस्य बढ़ा रहे हों, साधु-सन्तों का नाम लेकर समाज में धर्म की ठेकेदारी करके अपना उल्लू सीधा कर रहे हों, अपने शिथिलाचार को ढकने के लिए साधु के बढ़ रहे शिथिलाचार को आधारा बनाया जा रहा हो, प्रथमानुयोग को किस्सा कहानियां कहकर विकथाओं में रति बढ़ रही हो तब समाज में श्रावक की आचारसंहिता निम्नलिखित हेतुओं से अत्यन्त आवश्यक हो गई है।
व्यसनमुक्तजीवन : जैन धर्म में श्रावक को द्यूत, मांस, सुरा, वेश्या, चोरी, आखेट एवं परांगना इन महापापकारक सात व्यसनों के त्याग का कथन किया गया है
'घूत-मांस-सुरा-वेश्या-चौर्याखेट-परांगना।
महापापानि सप्तानि व्यसनानि त्यजेद्बुधः।।' 1. सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमट्टमए।
भुंजिवि सुरमणुयसुहं पावेइ कमेण सिद्धपयं ।। -वसुनन्दि श्रावकाचार, 539 2. 'मरणान्तिकी सल्लेखना जोषिता'
-तत्त्वार्थसूत्र, 7/22