________________
समाज में श्रावकाचार संहिता की आवश्यकता
-डॉ. जयकुमार जैन
जैन संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से अन्यतम है। यह पुरुषार्थमूलक संस्कृति है। यद्यपि यह भाग्य को स्वीकार करती है, तथापि इसकी अवधारणा है कि प्रबल पुरुषार्थ के द्वारा भाग्य को हीनफल किया जा सकता है या अन्य रूप परिणमित किया जा सकता है। इसी कारण जैन संस्कृति में आचार को आवश्यक माना गया है। ‘णाणस्स सारं आयारो' तथा 'चारित्तं खलु धम्मो' में यही भावना प्रतिफलित दृष्टिगोचर होती है। सम्यग्दृष्टि आचारमार्ग का परिपालन करने के लिए श्रमणत्व को अंगीकार करता है और यदि शक्ति में हीनता देखता है तो श्रावक के आचार को धारण करता है। अतः श्रमण एवं श्रावक की पृथक्-पृथक् आचार संहिताओं का विवचेन जैन ग्रन्थों में मिलता है।
___ मानव जीवन में श्रावक की आचारसंहिता का सर्वातिशायी महत्त्व है। आचारसंहिता के अभाव में श्रावक ने अपनी पहचान खो दी है तथा वह धर्म से विमुख होता जा रहा है। फलतः समाज पतनोन्मुखी हो रहा है। मनुष्य इस कारण श्रेष्ठ नहीं माना गया है कि उसमें बुद्धिचातुर्य अधिक है, अपितु उसकी श्रेष्ठता आचारशुद्धि एवं विचारशुद्धि पर आश्रित मानी गई है। श्रावक के आचार में मोक्षपुरुषार्थ की भूमिका है उसकी पारमार्थिक यात्रा धर्म पुरुषार्थ से प्रारंभ होती है तथा मोक्ष पुरुषार्थ पर विराम लेती है। अर्थ एवं काम पुरुषार्थ तो श्रावक के पड़ाव हैं। श्रावक की आचारसंहिता की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए वसुनन्दिश्रावकाचार में कहा गया है कि श्रावक धर्म का पालन करने से कोई तीसरे भव में सिद्ध पद प्राप्त करता है तो कोई क्रमशः देव और मनुष्यों के सुख भोगकर पाँचवे, सातवें या आठवें भव में सिद्धपद को प्राप्त कर लेता है।' श्रावक की आचारसंहिता के अन्तर्गत जैन ग्रन्थों में अष्टमूल