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________________ अनेकान्त/4 उनमें घटित हुई वैसी विशिष्ट पुण्यशाली जीवों की ही होती होगी। अन्यथा व्यवहार में जैसे मृत्यु को प्राप्त हर जीव को 'स्वर्गवासी हो गया' कहने की परिपाटी चल पड़ी है-वैसे ही शुद्ध सल्लेखना के अभाव में भी साधारण रूप से कहा जाने लगा है कि अमुक का सल्लेखना पूर्वक मरण हो गया है। परन्तु हमारी श्रद्धा में चारित्र चक्रवर्ती महाराज की सल्लेखना आज भी अनुकरणीय है। सल्लेखना का भाव है-'काय और कषायों का कृश करना' और यह सल्लेखना परीषह सहन करने से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती है। कहा गया है-'मार्गाच्यवन निर्जरार्थं परिषोढव्या परीषहः' मार्ग से पतित न होने और निर्जरा के हेतु परीषह सहन आवश्यक है और यही भाव सल्लेखना में निहित हैं। वस्तुतः सल्लेखना और परीषह सहन का पारस्परिक सम्बन्ध है हम उसे साध्य-साधन का नाम भी दे सकते हैं-सल्लेखना साध्य है और परीषह सहन उसका साधन। यही कारण है कि सल्लेखना (चाहे नियम रूप हो या यम रूप हो) ग्रहण करने के पूर्व परीषह-सहन का अभ्यस्त होना और सल्लेखना काल में निरन्तर परीषह सहन करना आवश्यक है। नियम सल्लेखना का उत्कृष्ट काल बारह वर्ष बतलाया गया है। यह इसलिए कि शरीर की आयुस्थिति की सीमा अज्ञात होती है-सम्भवतः वह -अधिक काल रह सकती हो। इस बारह वर्ष के काल में परीषह सहन द्वारा अति स्थूल शरीर को भी कृश किया जा सकता है क्योंकि सभी परीषह कष्ट सहन के अभ्यास के लिए ही हैं। वैसे साधारणतया मुनिगण को तप, त्याग एवं ध्यान में विशेष सहायक होने से सदा ही परीषह सहन करना आवश्यक है। आज अन्य गृहस्थों द्वारा निर्मित सुख-सुविधा युक्त प्रासादों में रहने का त्यागियों में जो चलन बनता जा रहा है उन स्थानों के सेवन से न तो परीषह सहन हो सकती है और न ही शास्त्रोक्त सल्लेखना ही हो सकती है। अतः मुनि व त्यागी को इनका लोभ संवरण करना चाहिए। अस्तु, हमारे हर्ष का पारावार नहीं रहा जब हमने सुना कि हमारे श्रद्धास्पद 'हिमालय के दिगम्बर मुनि' ने दिनांक 16 जून 1999 को नियम सल्लेखना ग्रहण की है। हमारी भावना है कि सल्लेखना-सविधि उन चारित्र चक्रवर्ती के तुल्य ही सम्पन्न हो
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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