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हिमालय के दिगम्बर मुनि की सल्लेखना
-पग्रचन्द्र शास्त्री
हमने आज से लगभग 29 वर्ष पूर्व एक पुस्तक लिखी थी-'हिमालय में दिगम्बर मुनि' । सुना है उसके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, जो शुभ चिन्ह है यदि हमारी भावनानुरूप प्रचार हुआ है तो। हमारा उद्देश्य था कि किसी खास व्यक्ति विशेष की नहीं, अपितु दिगम्बरत्व के बाह्याभ्यन्तर स्वरूप, दिगम्बर की शान्त मुद्रा और दिगम्बरत्व की छवि की जनता पर ऐसी छाप पड़े जो भुलाए न भूले। ये भाव हमें तब उठे जब चौरासी मथुरा चातुर्मास के अवसर की चारित्र चक्रवर्ति आचार्य शान्तिसागर महाराज की हमारे हृदय में अंकित सौम्य छवि उभरकर हमारे स्मृति पटल पर आ गई। उन दिनों हम मथुरा गुरुकुल में विद्यार्थी थे और पुस्तक लेखन के समय हिमालय के दि० मुनि में लीन।
हिमालय-यात्रा में हमें चारित्र चक्रवर्ति आचार्य शान्तिसागर जी और मुनि विद्यानन्द जी में अन्तर नहीं रह गया था। सम्भवतः ऐसा इसलिए हुआ हो कि चरित्र-नायक हिमालय के दिगम्बर मुनि आचार्य शन्तिसागर की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा से विरासत में प्राप्त गुणों का अनुसरण कर रहे हों, जो उन दिनों उनकी चर्या से मुखरित होता था। जैसी सूनी ऊबड़-खावड़, नीरव पर्वत-शृंखलाओं में दिगम्बर-मुनि का वास-विहार होना चाहिए। साधुवृत्ति के अनुरूप प्रारम्भिक प्रवाह के दौर में मुनि विद्यानन्द जी की चर्या निर्बाध एवं निर्विघ्न सम्पन्न हो रही थी। हमारा सौभाग्य था कि हमें उन दिनों ताम-झाम युक्त घनी आबादी वाले कोलाहली शहरों से दूर अनायास ही दिगम्बर साधु की उस छवि को गहराई से पढ़ने का जो अवसर मिला वह छवि शायद देवताओं को भी दुर्लभ हो। जैसा अनुभव हुआ लिख दिया था। उसके बाद हमें अन्य कहीं किसी के वैसे दर्शन नहीं हुए। सल्लेखना
सल्लेखना शब्द कानों में पड़ते ही हमें चारित्र चक्रवर्ती श्री शान्तिसागर महाराज का पुनः स्मरण हो आया। हमारी जानकारी में जैसी विधिवत् सल्लेखना