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अनेकान्त/5
जो 17 अगस्त 1955 बुधवार को यम-सल्लेखना लेते ही एकान्त पहाड़ पर चले गए, वहां सल्लेखना योग्य एकान्त स्थान होता है। हमारे हिमालय के दिगम्बर मुनि भी ऐसी ही घोषणा कर चुके हैं कि वे अन्त समय में किसी तीर्थ की ओर ही विहार करेंगे।
सल्लेखना में काय को कृश करने के साथ ही कषाय कृश करने की भी प्रमुखता है। वैसे तो दिगम्बर मुनि कषायवान् नहीं होते कदाचित् प्रसंगवशात् कभी कषाय हो भी जाय तो वह जलरेखावत् संज्वलन कषाय हो सकती है। सल्लेखना में तो ऐसी कषाय को भी जीतना होता है। हमारे हिमालय के दिगम्बर मुनि जी ने स्पष्ट विज्ञप्ति द्वारा कह दिया है___मैं समस्त श्रावक-समुदाय एवं भक्तजनों को यह सानुराग-निर्देश देना चाहता हूँ कि मेरी उपस्थिति में या उसके बाद मेरी किसी भी प्रकार की तदाकार प्रतिमा (स्टेच्यू आदि) चरण-चिन्ह आदि न बनाये जायें। न ही मेरे नाम से किसी संस्था, भवन आदि का नामकरण किया जावे। इन कार्यों के लिए हमारे प्रातः स्मरणीय परमपूज्य आचार्य प्रवर कुन्दकुन्द, धरसेन, उमास्वामी, पुष्पदन्त, भूतबलि, गुणधर आदि मूलसंघ के आचार्यों के नाम ही रखे जावें या फिर तीर्थकरों एवं भगवन्तों के नाम पर इनके नामकरण हों। मेरी इस भावना का सभी भक्तजन एवं धर्मानुरागी जन आदर के साथ पालन करें-ऐसा अभिप्राय है। इससे समझना चाहिए कि उनके मोह का ह्रास चरमसीमा को स्पर्श करने जा रहा है-वे साधारण लोगों से भी क्षमायाचना कर चुके हैं जो कषाय प्रबलता वाले जीवों में सर्वथा दुर्लभ है। फलतः हम समझे हैं कि अब 'हिमालय के दि० मुनि' का पुनः दिल्ली पदार्पण हुआ है हमारे चारित्र चक्रवर्ती भी दिल्ली
आये थे-वे इसी भाव में थे। उक्त प्रसंगों से दोनों में कितना साम्य है यह सोचने का विषय नहीं।
हमारी भावना ऐसी बनी है कि जैसे 'संजद' शब्द जो लम्बे विवादों के बाद भी चारित्र चक्रवर्ती को मान्य नहीं हुआ-वह सल्लेखना के अन्तिम चरण में उन्हें सहसा मान्य हो गया। वे पूर्वाचार्यों का विरोध करने से सहमत नहीं हुए और उन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी कि “जिनदास, धवला जीवस्थान का 93वाँ सूत्र भावस्त्री का वर्णन करने वाला है। अतः वहाँ पर संजद पद अवश्य