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अनेकान्त/३७
से होता है अन्यथा वहाँ भी कब का ताला पड़ चुका होता। समाज का यह सौभाग्य था कि पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी के अनथक प्रयासों से अनेक जैन संस्थाओं की स्थापना हुई और वहाँ से शताधिक विद्वानों की शृंखला समाज को मिली परन्तु उसका समुचित उपयोग नहीं हुआ और उन अध्येता मनीषी विद्वानों ने समाज की उपेक्षा से पीड़ित होकर अपनी संतानों व शिष्यों को उस ओर प्रेरित नहीं किया। आज जो भी इस क्षेत्र में हैं वे अपनी आर्थिक विवशता या यश और आकांक्षा के निमित्त हैं ।
यही स्थिति शोध संस्थानों और शोधपीठों की है । यद्यपि उनकी स्थापना के पीछे हमारे गुरुओं की प्रेरणा से समाज में विशेष ललक पायी जाती है, परन्तु स्थापित शोध संस्थान उपयुक्त संसाधनों के अभाव में दम तोड़ रहे हैं या निष्क्रिय हैं । मात्र संस्थागत ढांचा खड़ा कर देने से उद्देश्य की प्राप्ति क्यों कर सम्भव हो सकेगी इस ओर कभी गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता नहीं समझी गई । होना तो यह चाहिए था कि शोध संस्थान के लिये उपयुक्त संसाधन जुटाये जाते और उनसे निकलने वाले शोधार्थियों को समुचित रोजगार की व्यवस्था की जाती । कितने आश्चर्य की बात है कि 2500वें निर्वाणोत्सव के समय से ही एक जैन विश्वविद्यालय की स्थापना की चर्चा की जाती रही है और इस निमित्त सोनागिर तीर्थक्षेत्र पर सिंहरथ पंचकल्याणक जैसे बृहद् आयोजन कर अकूत धन संग्रह भी किया गया परन्तु आज तक जैन विश्वविद्यालय की सत्ता देखने में नहीं आई। हाँ, कभी-कभार कुछ हजार रुपयों का आयव्ययक " एक पत्रिका में देखने में आ जाता है। विश्वविद्यालय तो दूर, हम किसी एक ऐसे सक्षम शिक्षण संस्थान की भी स्थापना और संचालन में विफल रहे हैं जिसके माध्यम से जैनधर्म दर्शन के निष्णात विद्वान् तैयार होते और समाज उन्हें युगानुरूप रोजगार की व्यवस्था करता ।
भगवान महावीर निर्वाणोत्सव के समय से समाज में एक नयी प्रवृत्ति ने जड़ जमायी है। धार्मिक प्रभावना के बहाने रथ प्रवर्तन के माध्यम से समाज का दोहन किया जाता रहा है। इस समय सारे देश में ऋषभदेव