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क्या खोया क्या पाया?
- डॉ. सुरेशचन्द्र जैन
आजकल धार्मिक आयोजनों-विधि-विधानों, सम्मेलनों की सूचनाओं से जैन पत्र-पत्रिकायें अटे हुए हैं और धर्मपरायणे नामधारी समाज के लोग भी तन मन धन से इस होड़ में शामिल हैं। यों तो धार्मिक आयोजन कुछ समय के लिए शान्ति का वेदन कराने में समर्थ हो सकते हैं परन्तु अधिकांश मात्र रस्म अदायगी या प्रदर्शन के निमित्त मात्र सिद्ध होते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर पिछले वर्ष हस्तिनापुर में एक अखिल भारतीय स्तर का कुलपति-विद्वत् सम्मेलन का आयोजन भारी तामझाम और प्रचुर धन व्यय करके आयोजित हुआ था, जिसमें पुरजोर कोशिश करने के बावजूद कुछ ही गणमान्य कुलपति सम्मिलित हुए थे। राजनीतिक रैलियों के समान ही सामाजिकों की भीड़ का प्रबन्ध हुआ था और फलश्रुति यह हुई थी कि सभी विश्वविद्यालयों में जैनचेयर स्थापित की जाय। उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए एक कुलपति महोदय ने यहाँ तक कह दिया था कि मात्र इतने के लिए यह तामझाम अनावश्यक और निष्प्रयोजन ही है। जैनचेयर के लिए तो वैधानिक शासकीय प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए थी।
उक्त प्रतिक्रिया समसामयिक थी, फिर यह भी गौरतलव है कि जिन विश्वविद्यालय में जैनचेयर स्थापित हैं वहाँ क्या हो रहा है? वस्तुतः
जैनधर्म दर्शन के अध्ययन के प्रति समाज में कभी जोश नहीं जागा परिणाम स्वरूप न तो छात्र मिलते हैं और न ही जैनचेयर की स्थापना का वास्तविक लाभ ही समाज को मिल पाया है। नियुक्त व्यक्ति यद्वा-तद्वा निर्वाह कर रहे हैं। यह तो गनीमत है कि उनका वित्त-पोषण राजकोष