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अनेकान्त/३५ ग्रन्थों में निश्चयनय द्रव्यार्थिक नय के समान तथा व्यवहारनय पर्यायार्थिक नय के समान है। वे निश्चयनय को परमार्थ, शुद्ध और भूतार्थ कहते हैं। व्यवहारनय को अभूतार्थ और अशुद्ध बतलाते हैं। कुन्दकुन्द के टीकाकारों एवं उत्तरवर्ती अन्य ग्रन्थकारों ने उक्त नवों के अनेक भेद-प्रभेद किये हैं।
15. निर्वाण कहाँ हैं?-: नियमसार में निर्वाण के सन्दर्भ में कहा गया है कि केवली की आयु का क्षय होने से शेष प्रकृतियों का सम्पूर्ण नाश हो जाता है। पश्चात् वे शीघ्र एक समय मात्र में निर्वाण को प्राप्त करते हैं। वे जनम, जरा और मरण रहित, परम, आठ कर्मरहित, शुद्ध, ज्ञानादि चार स्वभाव वाले, अक्षय, अविनाशी, अच्छेद्य, अव्याबाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्य-पाप रहित, पुनरागमन रहित, नित्य, अचल और निरालंब हो जाते हैं। जहाँ दुःख, सुख पीड़ा, बाधा, मरण, जन्म, इन्द्रियाँ, उपसर्ग, मोह, विस्मय, निद्रा, तृषा, क्षुधा, कर्म, नोकर्म, चिन्ता, आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल . ध्यान नहीं है, वहीं निर्वाण है। निर्वाण का इतना स्पष्ट विवेचन कुन्दकुन्द से पूर्व कहीं उपलब्ध नहीं है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अनेक दृष्टियों से कुन्दकुन्दकृत नियमसार का विशेष महत्व है क्योंकि उनके ग्रन्थों में जिनवाणी की मूल विरासत सुरक्षित है।
-प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली