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अनेकान्त/३४ विहीन होता है, वह अवश कहलाता है और उसी अवश श्रमण के ही आवश्यक कर्म होता है। जो श्रमण अशुभ भावों में, शुभ भावों में और द्रव्यगुण-पर्याय में चित्त को लगाता है, वह अन्यवश होता है। उसके आवश्यक कर्म नहीं होता। श्रमण के ये भेद सर्वप्रथम नियमसार में बतलाये गये हैं। इस प्रसंग में पश्चात्वर्ती ग्रन्थकारों ने कुन्दकुन्द का ही अनुकरण किया है।
11. ज्ञान, दर्शन तथा आत्मा का स्वपर प्रकाशकत्व-: नियमसार में ज्ञान, दर्शन और आत्मा की एकता तथा इनके स्पपरप्रकाशकत्व का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसी सन्दर्भ में कहा गया है कि ज्ञान आत्मा के बिना नहीं रहता और आत्मा के बिना नहीं रहता। इस कानि से उस चिन्तन के संकेत मिलते हैं, जिसमें ज्ञान को आत्मा से भिनन माना गया है। इसी तरह कहीं ज्ञान को मात्र पर प्रकाशक माना गया है। यहां कुन्दकुन्द ने ज्ञान, दर्शन और आत्मा के स्वपर-प्रकाशकत्व का तर्कपूर्ण विवेचन किया है, जो उत्तरवर्ती दार्शनिकों को चिन्तन के लिए आदर्श रूप में उपलब्ध हुआ।
12. ज्ञान और दर्शन युगपत् होते हैं-: नियमसार में कहा गया है कि केवली के ज्ञान और दर्शन सूर्य के प्रकाश और ताप की तरह युगपत् (एकसाथ) होते है। यह कथन सर्वप्रथम कुन्दकुन्द ने किया है, जिसे बाद के सभी दार्शनिकों ने अपनाया है।
___13. सर्वज्ञता-: नियमसार में जैनदर्शन की सर्वज्ञता विषयक यह अवधारणा अत्यन्त स्पष्ट रूप से व्यक्त हुई है कि केवली सर्वज्ञ व्यवहार से समस्त लोकालोक को जानता है, किन्तु निश्चय से वह अपने को ही जानता है। सर्वज्ञता विषय विचार कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण रहा है। नियमसार में इसका विस्तार से विवेचन किया गया है।
14.निश्चय और व्यवहारनय-: आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में निश्चय और व्यवहारनय का पर्याप्त उल्लेख हुआ है, किन्तु उन्होंने निश्चय नय तथा व्यवहारनय को परिभाषित नहीं किया है। उन्होंने यह अवश्य बताया है, यह निश्चयनय का कथन है और यह व्यवहारनय का। कुन्दकुन्द से पूर्व किसी ग्रन्थकार ने नयों को निश्चय और व्यवहार नाम नहीं दिया। कुन्दकुन्द के