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________________ अनेकान्त/३३ और उपादेय तत्त्वों का संशय, विमोह तथा विभ्रम रहित ज्ञान, सम्यग्ज्ञान कहलाता है। 8. आलोचना के चार भेद-: कुन्दकुन्द कहते हैं कि कर्म और नोकर्म रहित तथा विभावगुणों और पर्यायों से भिन्न अपनी आत्मा का ध्यान करना आलोचना है। आगम में उसके आलोचन, आलुछन, अविकृतिकरण और भावशुद्धि ये चार भेद कहे गये हैं। आलोचना का ऐसा विभाजन अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। 9. षडावश्यकः प्राचीन परम्परा-: आवश्यक श्रमण की दिनचर्या के प्रमुख अंग हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में सामायिक, चतुर्विंशति स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा कायोत्सर्ग से छह आवश्यक मान्य हैं। किन्तु नियमसार में प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित्त, परमसमाधि और भक्ति इन छह का इसी क्रम से विवेचन किया गया है। वहाँ इनके साथ आवश्यक शब्द का प्रयोग नहीं है। किन्तु प्रतिक्रमणादि का कथन करने के बाद अठारह गाथाओं में निश्चय आवश्यक का स्वरूप कहा गया है। वहीं आवश्यक शब्द भी अनेक बार प्रयुक्त हुआ है। प्रतिक्रमण में अतीत कालीन दोषों का निराकरण किया जाता है। अनागत दोषों के परिहार के लिए प्रत्याख्यान होता है। वर्तमान दोषों की आलोचना की जाती है। उक्त तीनों आवश्यकों में विचारित दोषों के शोधन के लिए प्रायाश्चित ग्रहण किया जाता है। प्रायश्चित तपश्चरण स्वरूप होता है। इसमें ही कायोत्सर्ग भी समाहित है। इस प्रकार दोषमुक्त होने के बाद परमसमाधि और भक्ति होती है। इनमें सामायिक और ध्यान ही प्रमुख क्रियाएं हैं। यह आवश्यकों की प्राचीन परम्परा है, जिसे कुन्दकुन्द ने नियमसार में सुरक्षित रखा है। यहाँ यह स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द के समय तक आवश्यकों की प्राचीन परम्परा प्रचलित थी, जिसे बाद में संशोधित करके नवीन परम्परा को विकसित किया गया। 10. अन्तरात्मा-बहिरात्मा तथा अवश-अन्यवशश्रमण-: जो श्रमण आवश्यक से युक्त, जल्परहित और धर्म और शुक्लध्यान में परिणत होता है, वह अन्तरात्मा है। जो श्रमण आवश्यक से हीन जल्प सहित और ध्यान
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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