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अनेकान्त/३१ से अस्तिकाय कहे गये हैं। काल द्रव्य कायवान् नहीं होने से तथा एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।
प्रवचनसार के ज्ञेयाधिकार की पहली गाथा में अर्थ (पदाथ) को द्रव्यमय कहा गया है। पंचास्तिकासंग्रह में एक सौ दो गाथाओं में पांच अस्तिकायों और छह द्रव्यों का विवेचन हुआ है। वहीं 10 3वीं गाथा में कहा गया है कि जो प्रवचन के सारभूत पंचास्तिकाय संग्रह को जानकर रागद्वेष को छोड़ता है, वह संसार के दुःखों से छुटकारा पा लेता है। 104वीं गाथा में पांच अस्तिकायों और छह द्रव्यों के लिए (अट्ठ) शब्द का प्रयोग हुआ है। 160वीं गाथा में धर्मादि का श्रद्धान व्यवहार सम्यक्त्व कहा गया है।
नियमसार में द्रव्यों को तत्त्वार्थ कहे जाने से ज्ञात होता है कि पंचास्तिकाय और षड्द्रव्य को तत्त्वार्थ मानने की प्राचीन परम्परा रही है, जिसे कुन्दकुन्द ने यथावत् सुरक्षित रखा किन्तु उनके समय तक सात तत्त्वों या नौ पदार्थो की मान्यता भी विकसित हो चुकी थी, इसलिए उन्होंने पंचास्तिकायसंग्रह में इनका भी समावेश कर दिया।
___ 4. ज्ञान-दर्शन का स्वभाव-विभाव कथन-: जीव उपयोगमय होता है। उपयोग ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का है। ज्ञानोपयोग स्वभाव और विभाव के भेद से दो प्रकार का होता है। अतीन्द्रिय और असहाय केवलज्ञान स्वभावज्ञान कहा गया है। तात्पर्यवृत्तिकार ने इसके भी दो भेद किये हैं-कार्य स्वभावज्ञान और कारण स्वभावज्ञान। समस्त प्रकार से निर्मल केवलज्ञान कार्यस्वभाव ज्ञान है और परम पारिणामिक भाव में स्थित तीन काल सम्बन्धी उपाधि रहित आत्मा का सहज ज्ञान कारणस्वभाव ज्ञान कहलाता है। पुनः विभाव ज्ञान भी संज्ञान और अज्ञान (मिथ्याज्ञान) रूप दो प्रकार का होता है। संज्ञान के मति, श्रुत, अवधि
और मनःपर्ययज्ञान ये चार भेद तथा अज्ञान के कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ये तीन भेद होते हैं। इस प्रकार ज्ञानोपयोग के आठ भेद हुए।
दर्शनोपयोग के भी स्वभाव और विभाव-दो भेद होते हैं। इन्द्रियों की सहायता से रहित असहाय केवलदर्शन स्वभाव दर्शनोपयोग है। टीकाकार ने इसके भी कारण स्वभाव दर्शन और कार्य स्वभाव दर्शन ये दो भेद