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अनेकान्त/२८ लगाई गई। मूर्तियों के साथ ही अपार शास्त्र भंडारों को भी नष्ट किया गया। मन्दिरों में यथोचित समय और विधि के अनुसार पूजा पाठ में भी समस्या खड़ी होने लगी। यथोचित आर्ष मार्ग का पालन असंभव हो गया। नग्न साधुओं का विहार असंभव हो गया। उस समय धर्म पर आई हुई आपत्ति के निवारणार्थ तथा स्थिति का पालनार्थ श्रावकों ने साधुओं से वहिर्गमन के विहार के समय वस्त्राच्छादन की प्रार्थना की। साधु अधिकांश में धर्म पालन की असंभवता देखकर समाधि को सन्नद्ध हुए थे, किन्तु सभी के आग्रह पर अपवाद रूप में वस्त्र धारण (गेरुआ वस्त्र) स्वीकार कर लिया। ताकि धर्म तो जीवित रहे कुछ विकत वेश ही क्यों न हो। आगे चर्चा यह निर्धारित की गई कि साधु की पूर्व की भाँति ही नग्न दीक्षा, मठ मन्दिरों में यथासंभव अथवा गुप्तरूप में नग्न रूप से अवस्थिति, आहार के समय वस्त्राच्छादन, शास्त्रों की सुरक्षा, लेखन कार्य, पठन-पाठन पर विशेष ध्यान, गुरुकुल व्यवस्था सहित सामायिक आदि आवश्यक पालन। साथ ही प्रभावशाली लोगों राजा, मंत्री, धनाढ्य एवं शिक्षित वर्ग एवं आम जनता को भी प्रभावित करने हेतु अतिशय प्रभावकारी वेष खडाऊँ, चाँदी की पिच्छिका (मयूर पिच्छ) सिंहासन, चंवर, पालकी सवारी, मठाधीश स्थिति को निर्मित किया गया। यंत्र, मंत्र, तंत्र द्वारा चमत्कारी प्रभाव दिखाकर दि० जैन धर्म की प्रभावना तथा काल में विवशता वश अपनाये गये वेष द्वारा की जाने लगी। इसी परिणति को भट्टारक परम्परा कहा गया। इन्हीं को मुनि, आचार्य आदि से सम्बोधित किया गया। यद्यपि पूर्व में विकृति को आधार स्वरूप मानकर योग्यकाल में उसे छोड़कर भद्रबाहु स्वामी के मूल संघ को पुनः स्वीकार करने का लक्ष्य रखा गया था। परन्तु कई शताब्दियों की लीक बन जाने के कारण एवं पद व्यामोह, ख्याति, पूजा, नाम के कारण इस परम्परा को भी कुछ भट्टारकगण अपनाये रहे हैं। उत्तर भारत में भी स्थान-स्थान पर जैसे ग्वालियर, दिल्ली, मथुरा, शौरीपुर में भट्टारकों की गद्दियां भी प्रायः सर्वत्र थी। दक्षिण भारत में तो जैनधर्म का डंका इन्हीं भट्टारकों द्वारा बजाया जाता था। इन भट्टारकों का निर्ग्रन्थ परम्परा (सुधारवेश में), शास्त्र भंडार एवं वृद्धि, मन्दिर आदि को सुरक्षित रखने में समाज पर महान् उपकार है। उनका